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मुखौटा

ममता कालिया

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2292
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत शीर्षक में छात्र वर्ग में आरक्षण जैसे मुद्दे का यथार्थ वर्णन किया गया है.....

Mukhauta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ममता कालिया की नवीतम् और चर्चित कहानियों का संकलन है ‘मुखौटा’।
    इन कहानियों में रचनाकार ने अपने समय और समाज को परिभाषित करने का भरपूर सृजनात्मक जोखिम उठाया है। संग्रह की हर कहानी में ममता कालिया की प्रयोगधर्मिता और संघर्ष चेतना बोलती है। शीर्षक कहानी ‘मुखौटा’ में छात्र वर्ग में आरक्षण जैसे मुद्दे का यथार्थ तथा ‘रोशनी की मार’ में दलित चेतना का उभार अपने पूरे तेवर के साथ मौजूद है। लेखिका कभी समाज के पूरे परिवेश में समकालीन सरोकार ढूँढ़ती है तो कभी नयी स्वातंत्र्योत्तर नारी को उसके पूरे वैभव और संघर्ष में चित्रित करती है। इन कहानियों में अनुभव की दीप्ति, दृष्टिकोण के खुलेपन के साथ हिन्दी कहानी के इस स्वरूप को परिभाषित करती हैं जिसकी पाठक को हरदम तलाश रहती है।

    समकालीन कथा लेखन में इस प्रकार के सहज, मेधावी, संवेदनशील और प्रफुल्लित व्यक्तित्व दुर्लभ हैं जो व्यापक समाज के प्रति इतनी बेबाक अभिव्यक्ति कर सकें। सम्बन्धो का खुला स्वीकार और चुनौतियों से साक्षात्कार इस सभी कहानियों का प्रमुख स्वर है। इनमें चालू मुहावरे वाला कटखना नारीवाद नहीं वरन् समग्र जीवन और परिवेश के प्रति सजग, सचेत, प्रतिबद्धता है।

    ‘पहले वाक्य से ममता कालिया की रचना मन को बाँध लेती है और अपने साथ बहाए लिए चलती है। कुछ इसी तरह जैसे उर्दू में कृष्णचन्द्र और हिन्दी में जैनेन्द्र की रचनाएँ। यथार्थ का आग्रह न कृष्ण था, न जैनेन्द्र का, लेकिन ममता रूमानी या काल्पनिक कहानियाँ नहीं लिखती। उनकी कहानियाँ ठोस जीवन के धरातल पर टिकी हैं। निम्नमध्यवर्गीय जीवन के छोटे-छोटे ब्यौंरों का गुम्फन, नश्तक का-सा काटता, तीखा व्यंग्य और चुस्त चुटीले जुमले, उनकी कहानियों के प्रमुख गुण हैं।

उपेन्द्रनाथ अश्क

    ‘ममता कालिया के रचना-लोक में दो तरह की छबियाँ हैं। एक में हमारे भारतीय समाज में मध्यवर्ग की नारी और उसका दुःख है। दूसरे में सामान्य जीवन के अनुभव हैं।

    ममता कालिया महिला त्रासदी के स्थूल रूपों को अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं बनातीं। जरूरत पड़ने पर वह त्रासदी की कुछ परम्परागत स्थितियों को शामिल करती हैं किन्तु ज्यादातर वे कठिन मगर बेहतर प्रणाली उपयोग में लाती हैं। उनकी दिलचस्पी सूक्ष्म स्तरों पर और गहरे प्रभावों को उद्घाटित करने में दिखती है।

    ममता कालिया ने इन कहानियों को महिलावादी क्रोधी भंगिमा में नहीं रचा है। न ही इनमें औरतों के प्रति अबोध आकुलता है। ये गुस्से और भावुकता से पृथक, निर्भय और निसंग तरीके से यथार्थ को हाजिर करती हैं। वस्तुतः उनकी कहानियाँ नारीवादी न होकर नारी के यथार्थ की रचनाएँ हैं।

अखिलेश

 एक रंगकर्मी की उदासी


हम उन्हें तब से जानते थे जब से कालोनी में आये। तकरीबन चार साल। इस लम्बे वक्त में हमने अनगिनत शामें बिताईं, फोन पर सच्चे झूठे बयान दिये, कभी टकराए, कभी प्रेम किया। लेकिन उनकी सबसे अच्छी बात यह थी कि नशे के साथ-साथ उनका गुस्सा भी उतर जाता।
पहले पहल वे अपनी उम्र को लेकर झूठ बोला करते। खुद ही बात शुरू करते।
‘आपको रिटायर होने में कितने साल हैं।’
मैं उनका प्रयत्न पहचानकर दो एक साल बढ़ा देती,

‘अरे मैंने तो सोचा बीसेक साल होंगे। आप चालीस से एक दिन ऊपर नहीं लगतीं।’
‘थैक्स बट फैक्टर आर फैक्टस।’ मन ही मन मैं खुश होती कि उनकी नजरों में मैंने कुछ साल स्मगल कर लिये। कौन जीता है रियायमेंट की खबर होने तक। कह दूँगी ऐच्छिक अवकाश ले लिया ।
मैं उन्हें कैसे बताती कि मेरे इस युवा अधेड़पन के पीछे कितनी स्कीनकेयर हेयरहाई एक्ससाइज और प्रसाधन सामग्री खर्च हुई है।
इस लिहाज से मेरे पति मस्त थे। वे यकीनन मुझसे दो साल बड़े थे, लेकिन, न उनके बाल सफेद हुए थे न दाँत हिले। उनकी समस्या उलटी थी। लोग उनसे पूछते ‘आप कौन सी डाय इस्तेमाल करते हैं, बाल तो आपके एकदम चमकीले और जवान हैं।’

वे हँस देते। स्पष्टीकरण देना उन्हें कभी अच्छा नहीं लगा।
‘कहते सच्चाई कितनी मार्मिक होती है। उसे विश्वसनीय बनाने में कितनी मेहनत क्यों करूँ ? पर मिश्रजी मेहनत करते थे। केवल सच रे लिए नहीं  वरन् सच गढ़ने के लिए।
कई तरह से वे अभूतपूर्व थे लेकिन कुछ चीज़ों में भूतपूर्व। उन्हें कई प्रसिद्ध नाटकों के निर्देशन का अनुभव था। दो पेग के बाद कभी वे पगला घोड़  के नायक बन जाते तो कभी अंधा युग के धृरराष्ट। कभी रथ की घड़घड़ाहट मुँह से निकालते तो कभी बिल्ली की म्याऊँ म्याऊँ। वे अपने द्वारा किये गए अभिनव प्रयोग दोहराते। कमरा उनका प्रेक्षागृह बन जाता और हम दोंनो प्रेरक। वे कभी भूल जाते कि नाटक अब एक मरती हुई विधा है।

वे कहते, जब मैंने घासीराम कोतवाल किया था तब लोगों ने टिकट खरीद कर हाल भरा था। एक भी मुफ्त पास नहीं बँटा था हजार दर्शकों ने मेरा नाटक एकदम पिन ड्राप सायलेंस में देखा।’
‘तब पोटेटो चिप्स की इतनी बिक्री नहीं थी, मैंने कहा। ‘शटअप। आप रंगमंच के बारे में कुछ नहीं समझतीं।’ वे यादों के गलियारे में भटक जाते ‘एक अकेली गौरी की भूमिका के लिए मैंने सत्तर लड़कियों का इन्टरव्यू लिया था।’
अनिल कहते, मिश्राजी इतनी लम्बी न छोड़िए। कहाँ मिलती है हिन्दुस्तान में सत्तर लड़कियाँ। माता-पिता लड़कियों को रंगमंच पर भेजना पसंद नहीं करते। सात आठ देखी होगी आपने।
नहीं सत्रह तो मेरे सामने आई होंगी, मिसेज मिश्रा कहतीं। बात सत्तर से सत्रह पर आ जाती। मिश्राजी के चेहरे पर यादों की धुन्ध छा जाती।

‘घासीराम ब्रॉडले में ले जाने का प्रस्ताव आया था मैं अड़ गया कि मैं आफ ब्राडवे में शो दूँगा।
‘सुना है आपका अपनी हिरोइन से कुछ झगड़ा भी था।’
‘वह तो बाद की बात है। पहले हम अच्छे दोस्त थे। दरअसल लड़कियाँ बडी अपरिपक्व होती हैं। हम निर्देशक उन्हें नायिका बनाते हैं चलना, रुकना, बोलना, चुप रहना सिखाते हैं। असल जिन्दगी में भी को नायिका समझने लगती है।’
‘कुसुम वर्मा का तो तलाक होते-होते बचा। वह पति गौरव ए० जी० आफिस में था। मेरा तो अच्छा वाकिफ़ था। उसी ने बताया कि कुसुम के लिए सारा घर एक स्टेज था और घर के सदस्य खलनायक कोई जरा-सा कुछ कह दे तो कमरे के बीचों बीच वह एक बाह आँखों पर टिका कर एकदम रोने लगती। कभी किसी के लिए कठखना जवाब टिका देती। पूछने पर कहती, यह तो स्वागत कथन था, तुमने क्यों सुना ? बाहर जाते हुए इतना चटक मेकअप करती थी कि गौरव का साथ निकलना दूभर हो जाता।
 
कुसुम की चर्चा से मिसेज़ मिश्रा कुछ अतिरिक्त चुप हो जाती। उनकी मुद्रा से पता चलता कि यह विषय उन्हें पसन्द नहीं आ रहा। पर कुछ बर्दाश्त करतीं।
पुराने किस्से पुराने दर्द की स्मृति जैसा आनंद देते। वर्तमान में किस्से रह ही कहाँ गये थे। नये छथियटर  समूह बड़े यांत्रिक अन्दाज में किसी विदेशी नाटक का रूपान्तरण तैयार कर अपना रंगमंच देश-प्रदेश के दस शहरों में ले जाते। कोई इनसे पूछे अपनी भाषा के सारे नाटककार मर गये हैं क्या ? जीवन और जगत की विपुलता से मुँह मोड़ा नाट्यकर्म सीमित प्रश्नों की पुनरावृत्ति में लगा था।

मिश्राजी का अकेलापन हम समझते थे। उनके बाद आने वाले निर्देशक आगे निकलते जा रहे थे। हाँलाकि उनके रंगमंच की झोल थे। मिश्राजी का टुप सारा बिखर गया था। कुछ अभिनेता मुंबई जाकर धारावाहिकों की दुनिया में हाथ पैर पटक रहे थे। अभिनेत्रियों के कैरियर पर विवाह और गृहस्थी का पर्दा पड़ गया था। वे अपनी शामें फोन, जाम और यादों के सहारे बिताते।

यही दिन थे दिसम्बर के जब हमें खबर लगी कि मानस आचार्य शहर में संकल्प नाम से नाट्य कला विद्यालय खोलने जा रहा है। अब तक मानस आचार्य के दो-चार नाटक हमने देखे थे पर उनसे यह अन्दाज लगाना मुश्किल था कि वह निर्देशन की तरह अध्यापन भी कर सकेगा। मिश्राजी ने खबर सुन कर मुँह बिचकाया। हालाँकि क्लास भरे हुए थे। उन्होंने अपने और हमारे ड्रिंक्स में एक एक आइसक्यूब और डाली। तीनों जाम झलक गये।
फिर वे हँसने लगे, उन्होंने हाथों को तीर कमान की तरह मोड़ा और क्लासों की ओर निशाना साध कर मुँह से आवाज निकाली, श्यों, श्यों।’

मिसेज मिश्रा ने होंठों पर उँगली रख कर हमें चुप रहने का इशारा किया।
कमरे में दक्षिणी कोने पर खड़े होकर मिश्राजी बोलने लगे, ‘मानस आचार्य, नाटक सिखाओगे। तुम क्या जानते हो। टट्टी धोना जानते हो। बस धोते रहो। अभी कितने दाँत हैं मुँह। नहीं जी नाट् कला सिखाएँगे। यह क्यों नहीं कहते कि कामकला सिखाएँगे। बहाना बनाकर लूटोगे्।’ अनिल ने टोका’, मानस कॉफी हाउस में मिला था। वह  बड़ी इज्जत से आपको याद कर रहा था। वह आपके हाथों संस्था का उद्घाटन करवाना चाहता है।’

यें कहो, मेरा मुँह बंद करवाना चाहता है। बट आए टोन्ट शट अप। वह मक्कार है यह बात मैं उसके मुँह पर कहूँगा।’
‘इससे तुम्हें क्या मिलेगा ? मिसेज़ मिश्रा ने चिढ़ कर कहा।’’ तुम्हें मिलना खोना के सिवा कुछ आता भी है। शहर में हरमजदगी की एक जगह खोली जा रही है और उसका उद्घाटन मैं करूँ, मैं जो घासी राम कोतवाल के पच्चीस शो दे चुका, जिसने फिरोजशाह कोटाला में अलकाजी से अंधायुग से बेहतर अंधायुग यहाँ इस शहर में कर दिखाया। अय हय, भारती देख लेते तो एक और नाटक लिख देते।’

हम चुपचाप उठे और सीढ़ियों से उतर गए। हमें पता था यह एकालाप अभी देर तक चलेगा।
मिश्रा जी को रिटायर हुए चार साल हो चुके थे पर वे रोज उसी तरह युनिवर्सिटी जाते, क्लास लेने।
लोग कहते ‘एक तरफ आप अपने वाइस चांसलर को कोसते हैं, दूसरी तरफ आप आधा दिन पढ़ाने में बिताते हैं।’
‘ऐसा है मैं न जाऊँ तो बच्चों का कोर्स कैसे पूरा होगा। मूर्खों ने मुझे रिटायर कर दिया और मेरी जगह कोई अगला रखा ही नहीं। मेरे विभाग में सात पद पहले से खाली पड़े हैं। यह बच्चों का कसूर नहीं है कि वे बाटनी में एम.एस.सी. कर लेते हैं पर चार पादप भी नहीं जानते। जो टीचर है बस वायवा और इक्जांमिनरशिप के जुगाड़ में लगे रहते हैं। फिर हम कहते हैं बच्चे कोचिंग क्लास में क्यों जाते हैं। ’

‘तो आप कोचिंग क्लास क्यों नहीं चला लेते ?’
यह सुनते ही वे उखड़ जाते, कल आप कहेंगे मैं सब्जी क्यों नहीं बेच लेता।’
लोग डर जाते और बात सिलटाते, ‘बच्चों को फादा होगा और आपका मन लगा रहेगा, यदि सोचा था।’ उनके घर के पौधों से पता चलता था कि यहाँ कोई प्राणिविज्ञान ही नहीं प्राणवान व्यक्ति रहता है। उनकी टैरेस पर तकरीबन पाँच सौ गमले थे। उनमें बहार ही बहार थी। पौधे लगाने का अन्दाज यह था कि अगर हरियाली वाले पौधे हैं तो पूरी की पूरी कतार क्रोटन और फर्न की। दूसरी तरफ फूलों की कतार में मौसम के हिसाब से डेहलिया, क्रिसेन्थिमम, फ्लॉक्स, नेस्टर्शियम के जितने रंग हो सकते हैं, सब वहाँ दीखते। टैरेस पर जाते ही तबियत बाग बाहग हो जाती। पढ़ाने के बाद बचा वक्त वे तरह तरह की खाद तथा पौधे तैयार करने में बिताते। उनकी बगिया देख कर लगता वाकई फूल नहीं रंग बोलते हैं।

अट्ठाईस साल नौकरी करने के बाद उन्होंने अपने निजी मकान नहीं बनवाया था। पहले विश्वविद्यालय द्वारा आवंटित बँगले में रहे और रिटायर होते ही किराये के मकान में चले गये। अब तक वे कई मकान बदल चुके थे। यह इत्तफाक ही था कि हरदम उन्हें ऊंपरी मंजिल पर मकान मिला। हर साल उनके गमलों की गिनता बड़ती जाती। इस बार वे अपने मकान मालिक से नाराज हो गये। उसने मिश्रा जी से बड़ी विनम्रता से इतना भर कहा, ‘‘टैरेस पर बहुत ज्यादा गमले रहने से मकान में सीलन बैठ रही है, आप कुछ गमले नीचे रख दें। घर की शोभा भी बढ़ेगी और घर खराब भी नहीं होगा।’
मिश्राजी बमक गये, ‘घर गमलों से नहीं गल रहा, आपने उसमें जो घटिया कंकरीट बाल लगाया है उससे सीलन बैठ रही है, इसमें। मकान मालिक डरपोक आदमी था। हाथ जोड़ने लगा, ‘मिश्राजी आप बुरा न मानें, हमने तो यों ही सुझाव दिया था, माने न माने आपकी मर्जी।’

पर मिश्राजी तत्काल नया मकान ढूँढ़ने में लग गये। जितनी बार उन्हें मकान मालिक की बात याद आ जाती वे तनावग्रस्त हो जाते और दो पेग ज्यादा पी लेते। उनके दोनों बेटे विदेश में ऊँचे पदों पर काम कर रहे थे। दोनों के पास वे एक बार रह कर लौट आये थे। यद्यपि दोनों ही बार वे इमिग्रेट वीजा पा गये थे। बेटे समझदार और सहिष्णु थे। वे पिता की रचनात्मक जरूरतों को समझते थे। इसलिए उनके पास लौटने का उन्होंने बुरा नहीं माना।

सबके जीने का एक सर्किट बन जाता है। मिश्राजी उम्र के जिस पायदान पर थे उसमे उनके हिसाब से पर्याप्त गतिविधियाँ थीं- सुबह पौधों की देखभाल, फिर युनिवर्सिटी छात्रों का प्राध्यापन, दोपहर विश्राम और शाम को चार पेग विस्की के बीच रंग-चिंतन और संस्मरण।

हम वर्तमान में जीते हुए लोग थे। हमें सब कुछ आज का और समकालीन ही अच्छा लगता भलें उसमें कमियाँ हों। मैं घंटों टीवी के सामने ऊटपटांग धारावाहिक और विज्ञापन देखते बिता देती। एक भी बार मलाल न होता कि वक्त बरबाद गया। अगर किसी चेनेल पर 1965 की फिल्म दिखाई जाती, मेरी बर्दाश्त से बाहर होती। उसमें हिरोइन की केशसज्जा से लेकर नृत्यमुद्रा तक, सब पुरानी और हास्यास्पद लगती। बैलबॉटम्स पहने हीरों, जोकर नज़र आता। कभी-कभी हम सांस्कृतिक-केन्द्र जाकर कोई नाटक भी देख आते। मिश्राजी क कहीं न कहीं से खबर हो जाती। वे फोन करते, ‘सुना है आप फिर कोई मूर्खता देखने निकले हुए थे।’
अनिल कहते, ‘इतना बुरा भी नहीं था शो। फिर दोस्तों का दबाव था।’

‘आपने वह गज़स नहीं सुनी’ ‘दोस्त बन बन के मिले मुझकों मिटानेवाले’
मैं बहस पर आती, ‘अगर ‘कोटमार्शल’ की सौवीं प्रस्तुति है तो जरूर नाटन में कोई दम होगा।’
मिश्राजी कहते ‘शाम को आप आइये तब मैं आपको उनकी खूबियाँ और खामियाँ गिनाऊँ। आप हिन्दी वालों में यही बड़ी गड़बड़ है कि भेड़ चाल चलते हैं। किसी कुंद अखबार नवीस ने लिख दिया कोटमार्शल अच्छा नाटक है और बीस साल यही सर्टिफिकेट काम देता रहा। चीजों का पुनर्मूल्यांकन आप लोगों के यहाँ  हैं ही नहीं।’ मैं कहती, ‘पुनर्मूल्यांकन का मतलब यह नहीं होता कि पहले का लिखा, सब, कुएँ में, डास दिया जाये।’ ‘डाला जाय, विस्मृति और अस्वीकृति के कुएँ में डाला जाय’ मिश्राजी उत्तेजित हो जाते।

बड़ी मुश्किल से हम उनका ध्यान नाटक से हटा कर मौसम और पौधों पर लाते। हमारे बीत हमेशा संवाद रहता हो, ऐसा नहीं था। कभी सात आठ दिन, बिना किसा सम्कर्क के निकल जाते। फिर एक सुबह, जब हम पहली चाय पी रहे होते, उनका फोन आता।
जैसे ही हम प्रति नमस्कार के बाद सौजन्य संवाद स्थापित करते वे उबल पड़ते, ‘आप चुप रहिये। इतने दिन आपने एक फोन तक नहीं किया जबकि दो लोकर कॉल आपको रोज़ मुफ़्त मिलती हैं।’ ‘हमने सोचा आप बाहर गये हैं।’
‘झूठ मत बोलिए। आपने कुछ नहीं सोचा। मैं आपके विचारों में कहीं नहीं था।’
अनिल कहते, ‘मेरे पेशे का संघर्ष आप नहीं जानते। सारा दिन इसी जोड़तोड़ में खप जाता है कि अखबार कैसे बिके।’
‘इधर निकल भी बहुत खराब रहा है।’

अब अनिल उखड़ जाते, ‘ऐसा क्यों कह रहे हैं आप।’ ‘आपने वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर की त्रासदी पर कुछ नहीं छापा, आप बिलकुल संवेदनशील पत्रकार हैं।’
‘मिश्राजी मेरा एकदम लोकल अखबार है। मन नहीं मानता तो कभी कभी राष्ट्रीय खबरें छाप देता हूँ। सीधे अन्तराष्ट्रीय हो जाऊँ, तो कहीं का नहीं रहूँगा।

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