श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
एक बार माँ घर के काम-काज में बेतरह व्यस्त थी। मेरा पापड़ी के घर जाना बेहद ज़रूरी था। उससे फ़िज़िक्स के नोट्स लेने थे। उस वक़्त, मेरा दस वर्षीय फुफेरा भाई घर में था। नाम-रतन।
माँ ने हिदायत दी, 'ख़बरदार, अकेली मत जाना। रतन को ले जा।
उन दिनों मेरी उम्र सत्तरह या अठारह साल थी। अपनी सुरक्षा के लिए मैं एक दस वर्षीय बालक को ले जाऊँ?
मैंने अवाक हो कर पूछा, 'रतन को क्यों ले जाऊँ? रास्ता-घाट पर रतन क्या मुझे बचायेगा? वह तो मुझसे छोटा है।'
माँ ने कहा, 'भले छोटा हो, लड़का तो है।'
लड़का होने की अहमियत बहुत ज़्यादा है, यह मैं बखूबी समझती हूँ। समझूगी क्यों नहीं? मैं तो ऐसी गृहस्थी में बड़ी हो रही हूँ, जहाँ लड़के-लड़की दोनों ही मौजूद हैं। इस फ़र्क को मैं इसलिए भूली रहती हूँ, क्योंकि जितना-सा मिल रहा है, वही काफ़ी है। हायर सेकण्डरी के बाद, मेरी पाँच-पाँच सहेलियों की शादी हो गई। अब उनका लिखना-पढ़ना शायद बन्द! ऐसे में क्या यह मेरा परम सौभाग्य नहीं है कि मेरे अब्बू ने मुझे व्याह कर, किसी अनिश्चित भविष्य की ओर नहीं धकेल दिया? मेरे अब्बू बदस्तूर भलेमानस हैं। वे मुझे अकेले, घर से बाहर जाने नहीं देते। इसकी वे एक ही वज़ह बताते हैं, 'आजकल जो दिन-काल है, तुम लाँछित या बेआबरू नहीं होगी, इस बारे में मैं निश्चित नहीं हो पाता। मुझे खटका लगा रहता है।'
वैसे कभी-कभी मुझे बहुत गुस्सा आता है। मिमी, श्रावणी, लूपा-ये लोग आराम से समूचा ढाका शहर घूमती-फिरती हैं। मेरे लिए ही इतनी रोक-टोक! इतने निषेध!
मुझे लगता है, मेरी ज़िन्दगी निस्तरंग पोखर है। अब मेरी उम्र उन्नीस वर्ष है! मैं ज़िन्दगी को खुल कर देखना चाहती हूँ। लेकिन, छत पर जाने, स्कूल जाने, स्कूल या घर के आँगन में कभी-कभी दौड़ लगाने, किताब-कॉपियों, लिखाई-पढ़ाई में डूबे रहने, अचानक-अचानक कभी दो-एक फ़िल्म या थियेटर देखने,
नाते-रिश्तेदारों के घर जाने, विविध पर्व-त्यौहारों पर जान-पहचान के लोगों से मिलने-जुलने कभी-कभार भाई के दो-एक दोस्तों से बातें कर लेना और माँ-खालाओं के साथ घरेलू अड्डेबाज़ी-इनके अलावा, मेरे पास जीवन का और कोई संचय नहीं है। मेरे हिस्से में और कोई अर्जन नहीं है।
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