श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
हैरत है, उसी रूमू ने पिछले दिन मुझसे कहा, 'देखो, शीला, माँ-बाप ही इन्सान के सबसे ज़्यादा अपने, सबसे ज़्यादा सगे होते हैं। उनका आदेश हमें नहीं ठुकराना चाहिए। उन लोगों का दिल दुखाना क्या उचित है? बताओ?'
मैंने भी इनकार में सिर हिलाया, 'ना-'
रूमू आईने के सामने खड़ी-खड़ी, अपने चेहरे पर बड़े जतन से क्रीम मल रही थी।
उसने कहा, 'बप्पा ने किसी इंजीनियर लड़के के साथ मेरा रिश्ता तय किया है। वैसे मैं अभी राज़ी नहीं हुई हूँ।'
भाई और रूमू सहपाठी हैं! क्लासमेट! मास्टर की डिग्री के लिए परीक्षा देने वाले हैं! जाने कव से तो दोनों में प्रेम चल रहा है। कितने सालों से? शायद पाँच सालों से! हाँ, पाँच ही वर्ष तो हुए! पिछले पाँच वर्ष तक मैं उनके ख़त लाती-ले जाती रही। कब, कहाँ, मिलना है, यह बता आती थी।
कभी-कभी रूमू मुझसे आग्रह करती थी, 'सुनो, आस-पास अगर कोई न हो, तो मुझे 'भाभी' कह कर बुलाया करो। ठीक है?'
लेकिन उसे 'भाभी' कहने में, मुझे शर्म आती थी। नतीजा यह हुआ कि 'भाभी' बुलाने के उलझन में, मैंने उसे 'रूमू आपा' बुलाना भी छोड़ दिया। अन्त में 'रूमू आपा' या 'भाभी' सम्बोधन के विकल्प के तौर पर, सारा मामला-एइ, अच्छा. इस तरफ़. देखती हूँ, वगैरह पर आ टिका था।
उस दिन रूमा, आईने के सामने खड़े-खड़े क्रीम मलते-मलते बातें करती रही, अपने व्याह, व्याह में उसके राज़ी न होने के बारे में बताती रही। अचानक वह ज़ोर-ज़ोर से रो पड़ी। मैं विमूढ़-सी खड़ी रही।
घर लौट कर, मैं यह तय नहीं कर पायी कि भाई को रूमू के विवाह के बारे में बताऊँ या अचानक उसके रो पड़ने के बारे में बताऊँ। वाद में, भाई जव शराब पी कर घर लौटा, तो मैं साफ़ समझ गयी कि भाई सव जान गया है। मुझे कुछ कहने या बताने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
मेरा जीवन नितान्त वैचित्र्यहीन है। सातवीं क्लास तक मुझे स्कूल. पहुँचाने के लिए, कोई साथ जाता था, छुट्टी होने पर ले भी आता था। कहीं घूमने निकलो, तो भी वही इन्तज़ाम! या तो माँ संग होती थी या अब्बू या भाई!
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