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श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


माँ का सवाल सुन कर मैं अन्दर-ही-अन्दर चौंक उठी। दिन भर मैं कुछ-कुछ सोचती रहती हूँ, यह तो सच है। मैं किसी ऐसे मर्द के बारे में सोचती रहती हूँ, जो मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है। ख़ाला के घर, मैं फ़ोन करने गयी थी, यह ख़बर उन्हें किसने दी? मामूली-सी बात! एकाध फ़ोन करना! यह भी मेरी तक़दीर में नहीं है? मरने-मारने के उतारू अभिभावकों को इसकी भी ख़बर हो जायेगी? मेरा मन बेतरह खट्टा हो आया। ऐसा लगा, ख़ाला के घर जा कर मेरा फ़ोन करना, माँ के मन में शक़ जगा गया है। शक तो एक बात का हो सकता है, मैं किसी से प्रेम करने लगी हूँ। असल में भाई का मसला जब तक हल नहीं होता, उतने दिन मुझे भी नज़रबन्द रखा जायेगा। कहावत है, दूध का जला, छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है।

अगले दिन ख़ाला आ पहुँची।

माँ ने मुझे बुला कर उनके सामने ही जवाब तलब किया, 'शरीफ़ा घर पर नहीं होगी, यह जानते हुए भी तू उसके घर गयी। क्यों? किसे फ़ोन किया था?'

झूठ मुझसे बोला नहीं जाता। एक बार ख़याल आया कि कह दूँ-अपनी किसी सहेली को। लेकिन यह बात मेरी ज़बान से नहीं निकली। मैं सिर झुकाए खड़ी रही।

ख़ाला ने ही कहा, 'तुम जाओ तो, दीदी, मैं बात करती हूँ उससे।'

मुझे पास बुलाकर ख़ाला ने कहा, 'सुन, शीला, यह ख़बर तेरी माँ को, तेरे खालू ने दी है। उस आदमी को तो खा-पी कर कोई काम नहीं होता, सिर्फ़ फ़िजूल की गड़बड़ी मचाता रहता है। ऐसा कर, अगर जरूरत पड़े, तो मेरे स्कूल में चली आया कर। इन दिनों दीदी को ज़रा शान्ति से रहने दे। फ़रहाद की वजह से आजकल उनकी मानसिक हालत कुछ परेशान है।'

मुझे बेतरह गुस्सा आया। इतनी पराधीनता अब मुझे बिल्कुल नहीं सुहाती। नादिरा कितने मज़े-मज़े से अपनी मन-मर्जी की करती है। अभी उसी दिन क्लास ख़त्म होने के बाद, रूबी, शमीमा, नुसरत, पॉपी, शिप्रा, नूतन कौर दल बाँधकर, चायनीज़ रेस्तरां में खाना खाने चल दी।

तहमीना ने मुझसे भी पूछा, 'तुम चलोगी?'

मैंने इनकार में सिर हिला दिया, 'ना-'

बात खाने-पीने की नहीं है। कहीं भी दल बाँध कर जाने में ही ज़्यादा मज़ा आता है। लेकिन मैं कैसे जाती? मुझे तो रिक्शे का किराया तक बस, गिन-गूंथ कर दिया जाता है। हर रोज़, अब्बू के दफ़्तर जाने से पहले, उनके आगे हाथ पसारना पड़ता है-'रिक्शा-भाड़ा दो।' अब्बू अपना मनीबैग निकाल कर, बीस या पच्चीस रुपये, हाथ पर रख देते हैं। वही मेरे दिन भर का ख़र्च है। हाँ, कभी-कभार माँ से दस-बीस रुपये, चाय-वाय पीने के लिए ले लेती हूँ या कभी-कभार यह-वह ख़रीदने के लिए! कुछेक रुपये जमा भी होते रहते हैं, जो मैं ड्रॉअर में रखती जाती हूँ। लेकिन, काफ़ी मामूली-से रुपये होते हैं! मेरे कपड़े-जूतों के लिए माँ मुझे अपने संग ले जाती है और पसन्द करके, मेरे लिये सामान खरीद देती हैं। कभी-कभार खाला भी तरह-तरह के फैशनदार कपडे बनवा लाती हैं। वैसे भी मैं कपड़े-लत्तों की कभी फ़र्माइश नहीं करती। जो बन जाता है, ठीक है। मेरी दो छोटी-छोटी बहनें हैं-सेतु और सेवा। उनकी ढेरों फ़र्माइशें लगी रहती हैं। माँ उन्हीं दोनों में ज़्यादा व्यस्त रहती हैं। खैर, मुझे इसमें कोई एतराज़ भी नहीं।

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