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श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


ख़ाला के घर से उसे फ़ोन करना होगा। हमारे घर में फ़ोन नहीं है। ख़ाला ज़रूर मुझे फ़ोन करने की अनुमति दे देंगी। इसके अलावा, अगर वह पूछेगी, तो मैं बता दूंगी कि मंसूर कौन है और क्यों मैं उसे प्यार किये बिना नहीं रह सकती। दुकान से निकल कर, बाहर आते हुए, मैंने मंसूर की तरफ़ दुबारा पलट कर देखा। मंसूर ने हँसते हुए हाथ हिलाया यानी फिर मिलेंगे। लेकिन मिलेंगे कहाँ? नादिरा के प्रति मुझे एक किस्म का गुस्सा भी आया। उस वक़्त अगर वह मुझे आवाज़ न देती, तो वहाँ से वह नहीं हटता। अगर वह नहीं हटता, तो बातचीत चलती रहती। नादिरा ने और कुछ देर क्यों नहीं की?

दोपहर के वक़्त मैं ख़ाला के घर पहुँच गयी। ख़ाला घर पर नहीं थीं। मैंने कार्ड देख कर नम्बर मिलाया। मेरी छाती धड़क रही थी।

उस छोर से किसी मर्द ने सवाल किया, 'किससे बात करनी है?'

'मंसूर से!'

'वह नहीं है।'

यह कह कर उसने खट से फ़ोन रख दिया।

मैं बेतरह आहत हुई। वह कब आयेगा, कब मिलेगा, कुछ भी पता नहीं चल सका।

उस वक़्त खाला के यहाँ सिर्फ नौकरानी मौजूद थी।

मैं उसी को बता कर चली आयी।

'ख़ाला जब वापस आयें, बता देना, शीला आयी थी।'

शाम को मैं बेहद उदास मूड में, बरामदे में बैठी थी।

माँ ने पूछा, 'सुना कि आज तू शरीफ़ा के घर गयी थी?'

'हाँ!'

'क्यों?'

'कोई क्लास नहीं थी। सोचा मिल आऊँ।'

'फ़ोन किसे किया था?'

'किसने कहा?'

'सुन, मुझसे कुछ मत छिपाना। आजकल तेरे रंग-ढंग मुझे ठीक नहीं लग रहे। दिन-दिन भर तू किस सोच में डूबी रहती है, बता तो?'

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