श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
मंसूर से अचानक मुलाक़ात हो गयी।
मैं नादिरा के साथ, बनानी की किसी दुकान में गयी थी। वह अपने शौहर की सालगिरह पर, उसे कोई उपहार देना चाहती थी।
'सुन, कोई क्लास नहीं है। चल, घूम आयें।' उसने कहा।
'चल!' मैं भी राज़ी हो गयी।
मंसूर पर नज़र पड़ते ही, मैं एकदम से अचकचा गयी। दुकान का दरवाज़ा धकेल कर, मैं अन्दर दाखिल ही हो रही थी कि सामने मंसूर खड़ा था। नीली ट्राउज़र और सफ़ेद बनियान! उफ़! दिल छीन लेने वाला कैसा तो सौन्दर्य! मैं पत्थर की बुत बनी, जहाँ की तहाँ जम गयी। मंसूर की निगाह भी मुझ पर पड़ी और वह मेरी तरफ़ बढ़ आया। मंसूर मेरी तरफ़ बढ़ा आ रहा है, इस एहसास ने मेरे समूचे तन-बदन में पुलक भर दिया।
मंसूर आगे बढ़ आया और मेरी बग़ल में खड़े-खड़े, वह कसीदेदार नक्काशी के 'कांथे' गौर से देखता रहा।
मैंने अस्फुट आवाज़ में कहा, 'आपको मैंने ढेरों ख़त लिखे।'
आवाज़ सुन कर मंसूर की निगाहें, मेरी तरफ़ उठी गयीं।
उसके होंटों की कोरों में हँसी! मुझे बार-बार यही ख़याल आता रहा कि काश, उसे मेरे सारे खत मिले होते! वह खुद ही आगे बढ़ कर मुझसे बातें करता।
वह मुझसे कहता, 'चलो, हम हवा में घुलमिल कर कहीं खो जाएँ।'
बहरहाल, उसकी निगाहें मेरे चेहरे पर गड़ी हुई थीं! उसके होंटों पर प्रश्रय की हँसी!
मैंने पूछा, 'अपना पता बतायेंगे?'
'क्यों?' मंसूर ने पूछा।
'ज़रूरत है।'
'ब-होत ज़रूरत है?' यह पूछते हुए, मंसूर और क़रीब आ गया और लगभग सट कर खड़ा हो गया। उसकी देह से मीठी-मीठी खुशबू निकलती हुई!
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