श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
पहले दर्जे का डिब्बा!
अब्बू को अन्दाज़ा हो गया कि वह शख़्स बिना-टिकट है। चार मुसाफ़िरों के इस कमरे में अतिरिक्त यात्री को सफ़र की अनुमति नहीं देनी चाहिए थी। लेकिन अब्बू का उन्हें निकाल बाहर करने का मन ही नहीं हुआ।
उस शख्स ने अपने कन्धे का झोला बग़ल में रखते हुए पूछा, 'यहाँ मैं सो सकता हूँ?'
अब्बू ने जवाब दिया, 'हाँ, सो जाइये।'
अब्बू ने अपनी सीट उस शख्स को दे दी।
वह शख्स लेटते ही सो गया।
बाक़ी रात अब्बू ने अकेले ही जाग कर गुजार दी।
भोर फूटते ही वह सज्जन जाग गये और उन्होंने उठ कर खिड़की खोल दी और बाहर के उजले-धुले उजाले से समूचा डिब्बा भर दिया। उमस भरे डिब्बे में ताजा हवा का झोंका घुस आया।
उस शख्स ने उच्छ्वसित लहजे में कहा, 'बड़ी मोहक भोर है।" उच्छ्वास की मुद्रा भी बिल्कुल वैसी ही!
अब्बू को याद आ गया...अब्बू की शादी के फ़ौरन बाद ही, नानू के घर, शरत पूनो की रात! रात भर छत पर बैठे-बैठे गपशप चलती रही, गाना-बजाना होता रहा, अड्डेबाज़ी भी चलती रही। वहाँ अब्बा, अम्मी, दो-दो ख़ाला, अम्मी की एक सहेली और मामा मौजूद थे।
मामा थोड़ी-थोड़ी देर बाद उस जमघट से उठ कर अपनी दोनों बाँहें, शून्य में फैला कर कह उठते थे–'वाह! कैसी मोहक रात है!'
ट्रेन के उस शख़्स का हाव-भाव अब्बू के मन में शक़ को डाल गया। उनका मन हुआ कि वे उनसे पूछ ही लें-'तुम मुनीर हो न?' लेकिन अन्त तक उन्होंने नहीं पछा। कहीं वह शख्स कहीं यह न बोल उठे– 'आप मुझे इतना तंग क्यों कर रहे हैं, साहब?'
आमतौर पर अब्बू ट्रेन में कुछ नहीं खाते। उस दिन सुबह साढ़े छह बजे ही दो कटलेट और दो चाय का ऑर्डर दे डाला।
कटलेट की प्लेट उस शख्स की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, 'लीजिये, गर्म-गर्म खा लीजिये।'
वह शख़्स चाय-कटलेट का नाश्ता करने में जुट गया।
अब्बू ने अगला सवाल दाग़, 'आपका नाम जान सकता हूँ?'
उस शख्स ने हँसते-हँसते जवाब दिया, 'दूल्हा भाई, आपकी सेहत बहोत गिर गयी है।'
अब्बू ने छूटते ही उस केश-दाढ़ीवाले शख्स का हाथ कस कर थाम लिया, 'मुनीर?'
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