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श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


'ना री, दिदिया, नहीं जुटता। बड़ी भूख लगी है।'

संन्यासी मामा पर मुझे बहोत तरस आता है। वह बन्दा पूरे बारह साल घर नहीं लौटा। बारह साल पहले उन्होंने शादी की थी। लेकिन शादी के दूसरे दिन ही, वे अचानक घर छोड़ कर चले गये। उनकी बीवी बेचारी दिन-रात रोती रहती थी।

नाना ने कहा, 'अब, इस बहुरिया का मैं क्या करूँ? परायी लड़की ठहरी! उस बदमाश की वजह से इस लड़की की ज़िन्दगी क्यों बर्बाद हो?'

नानू भी रोती रहती थी।

मामी के अब्बू-अम्मी बेटी को लेने आये।

बेटी ने कहा, 'मैं नहीं जाऊँगी। वे लौट आयेंगे।'

उन्हें जितना ही समझाया गया कि उसे गये हुए छह महीने हो गये, अब वह नहीं लौटेगा। उतना ही वह रो-रो कर कहती रही-मेरा मन कहता है, वे लौट आयेंगे। बहरहाल, उस बार, मामी के माँ-बाप उन्हें अपने साथ नहीं ले जा सके। साल भर बाद, बेटी खुद चली गयी।

जाने से पहले उसने सास-ससुर के पैर छूकर सलाम किया और कहा, 'जब वे लौट आयें, तो मुझे ख़बर दीजियेगा।'

बारह वर्ष बाद, उसी मामा को मेरे अब्बू ने ट्रेन में देखा। अब्बू राजशाही से ढाका लौट रहे थे। बहादुराबाद घाट से लम्बे-लम्बे बाल-दाढ़ी वाला एक शख्स ट्रेन के उसी डिब्बे में चढ़ा और बिल्कुल उनके आमने-सामने आ बैठा। अब्बू उसे गौर से देखते रहे। उस शख्स की आँखें काफ़ी पहचानी-पहचानी-सी लगीं। जब उन्होंने होटों में सिगरेट दबा कर, अब्बू से माचिस माँगा, तब उनकी आवाज़ भी काफ़ी परिचित लगी।

अब्बू की नज़रें उन्हीं पर गड़ी रहीं।

उन्होंने पूछा, 'कहाँ जा रहे हैं?'

'ढाका!' उस शख्स ने जवाब दिया।

इतना कह कर वे मुस्करा उठे। लेकिन उनकी मुस्कराहट, उनके बाल-दाढ़ी में ही छिप गयी।

अब्बू का शक नहीं मिटा।

उन्होंने दुबारा पूछा, 'आपका घर कहाँ है?'

वह शख्स मुस्करा उठा। उसने कोई जवाब नहीं दिया।

कोई जवाब न पा कर, अब्बू ने भी अपनी नज़रें ट्रेन की खिड़की की तरफ़ घुमा लीं।

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