श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
मैंने गौर किया, नादिरा ने हमारी दो विवाहित सहेलियों को अपने यहाँ आने की दावत दी। मुझे भी आमन्त्रित किया। वे दोनों अपने पति के साथ जायेंगी। उनके यहाँ नादिरा भी अपने शौहर के . साथ जायेगी। उन तीनों लड़कियों ने अपना एक अलग अड्डा गढ़ लिया है। ऐसा लगता है कि मेरे या मुझ जैसी अन्यान्य कुँवारी सहेलियों के मुक़ाबले, वे लड़कियाँ अचानक बेहद 'मैच्योर्ड' हो गयी हैं। वे लोग दीन-दुनिया के बारे में, हम सबसे ज़्यादा जानती हैं, समझती भी ज़्यादा हैं। उन लड़कियों में मर्दो की समझ ज़्यादा है; संसार-समाज भी ज़्यादा समझती हैं। नादिरा मेरे स्कूल-कॉलेज की सहेली है, लेकिन अब वही, कितनी अलग-थलग हो गयी है, जैसे मेरा और उसका जीवन कहीं से भी एक जैसा नहीं है।
एक दिन रजिस्ट्री बिल्डिंग से मैंने ख़ाला को फ़ोन किया।
ख़ाला ने बताया, 'नहीं, कोई ख़त-वत नहीं आया।'
कोई ख़त नहीं आया, यह सुन कर मैंने एक लम्बी उसाँस छोड़ी। कोई भी मानव जीवन शायद इतना व्यर्थ...इतना अकारथ नहीं होता। दोपहर भर मैं सोचती रही, नींद की एकाध दवा मिल जाती, तो बेहतर होता। दवा खा कर, मुमकिन है, मुझे नींद आ जाती। यह सब असहनीय पीड़ा-यन्त्रणा, अब अच्छा नहीं लगता।
शाम को तुलसी मेरे यहाँ आयी।
तुलसी गपशप के मूड में थी।
मैंने भी सोचा, पिछली सारी व्यर्थता भूल कर, आज जम कर अड्डेबाज़ी की जाये। तुलसी मेरे बचपन की सहेली है। हम दोनों ने एक ही स्कूल में, पहले दर्जे में दाखिला लिया था। बचपन में गुड़ियों का खेल, छत पर ईंटें बिछा कर, रसोई-रसोई का खेल, अपेन्टो बायस्कोप, इक्का-दुक्का, गोल्लाछूट का खेल-इन सबमें, तुलसी ही मेरी पक्की सहेली थी। जब हम आठवीं क्लास में पहुँचे, खेल-कूद छोड़ना पड़ा।
माँ कहती थीं, 'लड़कियाँ जव सयानी हो जाती हैं, तो मैदानों में नहीं खेलतीं।'
सयानी होने की संज्ञा माँ ने कैसे गढ़ ली, मुझे ठीक-ठीक समझ में नहीं आता। वैसे तुलसी ने एक बार बताया था कि...'वह सब होने के बाद, लड़कियों को सयानी कहते हैं।'
'वह सब होना?'
'नहीं समझी? अरे, वही ऽ ऽ खून-टून बहना...'
लेकिन इस घटना के साथ सयानी होने का मामला मैं ठीक-ठीक मिला नहीं पायी। मेरा ख़याल था, सयानी होने के लिए, और भी कुछ होना पड़ता है।
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