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श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...



मेरी एक सहेली थी। नाम-नादिरा! दो महीने पहले, उसकी शादी हो गयी। लाइब्रेरी के मैदान में, अचानक उससे भेंट हो गयी।

मुझे देख कर मारे उछाह से वह चीज़ उठी, 'क्या, री, कुएँ की मेंढकी, तू यहाँ?'

मेरे होंटों पर उदास हँसी तैर गयी।

हम दोनों लाइब्रेरी-मैदान की हरी-हरी घास पर जा बैठीं। कॉलेज की दो और क्लासमेट भी आ जुटीं। हमारी जमघट में दाम्पत्य जीवन के किसे शुरू हो गये।

नादिरा की गर्दन पर जमे हुए खून के लाल-लाल निशान देख कर, मैंने निरीह लहज़े में सवाल किया, 'यह तेरी गर्दन में क्या हुआ है?'

नादिरा समेत सभी लड़कियों ने ज़ोर का ठहाका लगाया।

'यह चुम्बन का दाग़ है।'

सबने मिल कर मुझे समझाया। विवाह के बाद, ऐसे चुम्बन से समूची देह भर उठती है।

उनकी बात सुन कर, मारे लाज के, मेरा चेहरा आसक्त हो उठा। अपनी मूर्खता पर, मुझे अपने पर ही बेतरह गुस्सा आया।

नादिरा की आँखें, चेहरा खुशी से चमक रहा था।

मैं अपलक निगाहों से उसे देखती रही। शादीशुदा ज़िन्दगी शायद बेहद सुखद होती है। मेरे तन-बदन में, जाने कैसी तो झुरझुरी फैल गयी। अकेले में, आँखें मूंदे, मैं कल्पना किया करती थी-किसी ने मेरी तरफ़ अपनी बाँहें फैला दी हैं; किसी की मोहक-मज़बूत बाँहें, मेरी ओर बढ़ आयी हैं! मुझे मालूम है, वे मंसूर की बाँहें हैं...उस वक़्त, मेरे तन-बदन में कैसा तो अद्भुत एहसास जाग उठता है! नादिरा जैसी शादीशुदा लड़कियाँ, उस एहसास के कितने क़रीब...कितनी गहराई में उतर गयी हैं। और मैं? बदनसीब शीला, मेरे लिए तो यह सम्भव ही नहीं हो पाया कि उस गहराई तक पहुँच सकूँ। उसके प्रति क्या मेरे मन में थोड़ी-बहुत ईर्ष्या जाग उठी है? शायद यह सच है! मुझे अपने पर भी काफ़ी तरस आने लगा।

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