श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
मैं इन रिश्तों की उलझी हुई गाँठे खोल नहीं पाती। यह तो मैं साफ़-साफ़ समझ गयी कि ख़ालू के प्रति ख़ाला के मन में अब कोई प्रेम-प्यार नहीं बचा है। सिर्फ लोक दिखावे का एक सामाजिक सम्पर्क भर टिका हुआ है।
काफ़ी दिनों बाद, आज ठण्डी-ठण्डी बहती बयार में मैंने पूछा, 'तुम्हारा ज़फ़र कैसा है?'
'अच्छा है, मज़े में है।' ख़ाला ने जवाब दिया।
ज़फ़र का प्रसंग छिड़ते ही उनकी आँखें, चेहरा-मोहरा हँसने लगता है।
अगर वह उनसे प्यार करती थी, तो पहले ही उनसे विवाह क्यों नहीं कर लिया, मैंने उससे पूछ ही लिया। यह सवाल काफ़ी दिनों से मेरे मन में जगा हुआ था। आज मैंने पूछ लिया।
ख़ाला ने जवाब दिया, 'विवाह करके क्या फायदा होता? मैं उस शख्स को घर-गृहस्थी के तेल, नमक, प्याज़ के हिसाब-किताब में नहीं खींच सकती थी।'
'तो अन्त में, आख़िर नतीजा क्या निकलेगा?'
'जो हो रहा है, वही होगा। मैं मज़े में हूँ। टीचरी कर रही हूँ! बेटी स्कूल में पढ़ रही है...'
अचानक ख़ाला पूछ बैठी, 'तू किसी को प्यार करती है?'
मैं सकपका गयी। यह 'प्यार' शब्द आजकल मुझमें भयंकर कँपकँपी भर देता है। मंसूर से आज भी मेरा कोई संवाद नहीं हुआ। हालाँकि यह भी सच है कि मैं उससे प्यार करती हूँ।
ख़ाला के सवाल का जवाब देते हुए मैंने कहा, "हाँ, मन-ही-मन!"
'अरे, प्यार तो मन-ही-मन होता है! प्यार क्या कोई बाहरी चीज़ है?'
खाला के इस सवाल पर मैंने काफ़ी खुशी महसूस की।
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