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श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


यह सवाल करते ही, ख़ाला एकदम से झुंझला उठी, 'सुन, अच्छी-अच्छी बातें कर। यह सब फ़िजूल की बातें अब मुझे अच्छी नहीं लगतीं।'

एक दिन ख़ाला मुझे एक घर में ले गयी। ज़फर के घर! ज़फर इक़बाल! वे साहब, भलेमानस क़िस्म के थे। अकेले रहते थे। खुद ही पकाते-खाते थे, खुद ही अपने कपड़े धोते थे, आँखें झुका कर बातें करते थे। हँसते कम थे।

उन्होंने मुझसे पूछा, 'मुन्नी, तुम क्या पढ़ती हो?'

अपने को 'मुन्नी' कहे जाने पर, मुझे भयंकर गुस्सा आया। विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाली हूँ, मैं 'मुन्नी' क्यों होने लगी?

उन्होंने शरीफ़ा से कहा, 'आओ, शरीफ़ा बैठो। मैं फटाफट चाय बना लाऊँ-'

वहाँ ख़ाला के चलने-फिरने की भंगिमा देख कर, मुझे अन्दाज़ा हो गया कि वे यहाँ अकसर आती-जाती रहती हैं। इस बीच वे दो बार बावर्चीखाने भी हो आयीं।

मेरी तरफ़ देख कर, उन्होंने मुस्करा कर कहा, 'तुझे बड़ा अचरज हो रहा है न? सोच रही है, यह भला किसका घर है? ये ज़फ़र हैं, यूनिवर्सिटी में मेरे प्रोफ़ेसर थे। शादी-ब्याह नहीं किया। यूनिवर्सिटी के इस क्वार्टर में अर्से से रहते हैं। मुझसे बेहद लगाव है।'

सारा मामला मुझे बेहद अजीब लगा। ख़ाला को कभी इतना उच्छवसित होते नहीं देखा, ख़ास कर ख़ालू के सामने!

ख़ालू अगर कभी यह कहते थे, 'शरीफ़ा, चलो, आज कहीं घूम आयें।'

'आज मेरे सिर में काफ़ी दर्द है, जी!'

बहरहाल, ज़फ़र इक़बाल खुद ही चाय बना लाये।

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