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श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


अगले ही पल, उसने हँस कर कहा, 'किसके चरण-स्पर्श के लिए तुम्हारा मन लुढ़क-पुढ़क रहा है? ज़रा मैं भी सुनूँ!'

मैंने आँखें मूंद कर जवाब दिया, 'अगर मैं कहूँ तुम्हारे?'

मंसूर विस्मय से उठ कर खड़ा हो गया।

'शीला! शीला! शीला! तुम्हारे दिल में इतनी हल चल क्यों मची है? मैं तुम्हें इतना अच्छा क्यों लगता हूँ?'

उसे देख कर मेरा मन-प्राण भर उठता है।

'पोथीवितान' में काफ़ी देर तक मैं कितावें वगैरह उलटतीपलटती रही। किसी-किसी किताब के दो-एक पन्ने पढ़ भी गयी, लेकिन मन अक्षरों में नहीं, मंसूर के साथ था। मंसूर का चल कर जाना, अचानक पीछे मुड़ना, देखना, गाड़ी में सवार होना, मेरी तरफ़ देखते हुए मंद-मंद मुस्कराना...सारा कुछ, मेरी छाती में गुंथ गया था और मुझे आकुल-व्याकुल किये दे रहा था।

मैंने ख़ाला से कहा, 'आओ, चलें! रिक्शा ले कर दो घण्टे घूमते हैं-'

'दो-घण्टे ऽऽ कहाँ? कोई ज़रूरी काम है?'

'नहीं! बस, ऐसे ही!'

'ऐसे-ऐसे ही भला कोई घूमता है?'

'घूमने में नुकसान क्या है? बता, क्या नुकसान है?'

'तुझे हुआ क्या है, बता तो?'

'शहर में सर्दी पड़ने लगी है। जाड़े की ठण्डी-ठण्डी बयार, तन-बदन को भली लग रही है।'

ख़ाला को साथ ले कर, मैं खुले-हुड के रिक्शे पर सवार हो गयी। ख़ाला उम्र में मुझसे कम-से-कम दस वर्ष बड़ी थी। लेकिन, उससे मेरी अच्छी-खासी दोस्ती है। ख़ाला अपनी ज़िन्दगी के तमाम कहानी-क़िस्से मुझे बताती रहती है। ख़ाला का नाम है-शरीफ़ा!

छह वर्ष पहले शरीफ़ा ख़ाला की शादी हुई। उनकी पाँच वर्ष की एक बेटी भी है। ख़ाला के मन में अपने शौहर की गृहस्थी के प्रति अजीब-सी उदासीनता घर कर गयी है।

मैं उससे पूछती हूँ, 'ख़ालू कैसे हैं? कहाँ गये हैं? हमारे यहाँ बहुत दिनों से नहीं आये।'

ख़ाला की भौंहें चढ़ गयीं, 'मुझे नहीं मालूम!'

'क्यों? इतना मान क्यों ठाने है?'

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