कहानी संग्रह >> काके दी हट्टी काके दी हट्टीममता कालिया
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ममता कालिया की नवीनतम सामाजिक कहानियों का संग्रह...
Kake Di Hatti - A Hindi Book - by Mamta Kaliya
ममता कालिया की कहानियाँ नई कहानी के विस्तार से अधिक उसका प्रतिवाद हैं। सातवें दशक की कहानी में संबंधों से बाहर आने की चेतना स्पष्ट है। राजेन्द्र यादव नई कहानी को ‘संबंध’ को आधार बना कर ही समझने और परिभाषित करने की कोशिश करते हैं। ममता कालिया अपनी पीढ़ी के अन्य कहानीकारों की तरह ही इसे समझने में अधिक समय नहीं लेतीं कि अपने निजी जीवन के सुख-दुख और प्रेम की चुहलों से कहानी को बाँधे रख कर उसे वयस्क नहीं बनाया जा सकता। उनकी कहानियाँ स्त्री-पुरुष संबंधों को पर्याप्त महत्त्व देने पर भी उसी को सब कुछ मानने से इनकार करती हैं। वे समूचे मध्यवर्ग की स्त्री को केन्द्र में रखकर जटिल सामाजिक संरचना में स्त्री की स्थिति और नियति को परिभाषित करती हैं। उनकी स्त्री इसे अच्छी तरह समझती है कि अपनी आज़ादी की लड़ाई को मुल्क की आज़ादी की लड़ाई की तरह ही लड़ना होता है और जिस कीमत पर यह आज़ादी मिलती है, उसी हिसाब से उसकी कद्र की जाती है।
संरचना की दृष्टि से ममता कालिया की ये कहानियाँ उस औपन्यासिक विस्तार से मुक्त हैं जिसके कारण ही कृष्णा सोबती की अनेक कहानियों को आसानी से उपन्यास मान लिया जाता रहा है। काव्य-उपकरणों के उपयोग में भी वे पर्याप्त संयत और संतुलित हैं। वे सीधी, अर्थगर्भी और पारदर्शी भाषा के उपयोग पर बल देती हुई अकारण ब्यौरा और स्फीति से बचती हैं। भारतीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व के टूटने और नक्सलवाद जैसी परिघटना का कोई संकेत भले ही ममता कालिया की कहानियों में न मिलता हो, जैसा वह उनके ही अन्य समकालीन अनेक कहानीकारों में आसानी से लक्षित किया जा सकता है, लेकिन फिर भी अपनी प्रकृति में वे नई कहानी की संबंध-आधारित कहानियों की तुलना में कहीं अधिक राजनीतिक हैं। देश में बढ़ी और फैली अराजकता एवं विद्रूपताओं से सबसे अधिक गहराई से स्त्री ही प्रभावित हुई है। यह अकारण नहीं है कि उनकी भाषा में एक खास तरह की तुर्शी है जिसकी मदद से वे सामाजिक विद्रूपताओं पर व्यंग्य का बहुत सधा और सीधा उपयोग करती हैं। नई कहानी के जिन लेखकों को ममता कालिया अपने बहुत निकट और आत्मीय पाती हैं, इसे फिर दोहराया जा सकता है, वे परसाई और अमरकान्त ही हैं।
संरचना की दृष्टि से ममता कालिया की ये कहानियाँ उस औपन्यासिक विस्तार से मुक्त हैं जिसके कारण ही कृष्णा सोबती की अनेक कहानियों को आसानी से उपन्यास मान लिया जाता रहा है। काव्य-उपकरणों के उपयोग में भी वे पर्याप्त संयत और संतुलित हैं। वे सीधी, अर्थगर्भी और पारदर्शी भाषा के उपयोग पर बल देती हुई अकारण ब्यौरा और स्फीति से बचती हैं। भारतीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व के टूटने और नक्सलवाद जैसी परिघटना का कोई संकेत भले ही ममता कालिया की कहानियों में न मिलता हो, जैसा वह उनके ही अन्य समकालीन अनेक कहानीकारों में आसानी से लक्षित किया जा सकता है, लेकिन फिर भी अपनी प्रकृति में वे नई कहानी की संबंध-आधारित कहानियों की तुलना में कहीं अधिक राजनीतिक हैं। देश में बढ़ी और फैली अराजकता एवं विद्रूपताओं से सबसे अधिक गहराई से स्त्री ही प्रभावित हुई है। यह अकारण नहीं है कि उनकी भाषा में एक खास तरह की तुर्शी है जिसकी मदद से वे सामाजिक विद्रूपताओं पर व्यंग्य का बहुत सधा और सीधा उपयोग करती हैं। नई कहानी के जिन लेखकों को ममता कालिया अपने बहुत निकट और आत्मीय पाती हैं, इसे फिर दोहराया जा सकता है, वे परसाई और अमरकान्त ही हैं।
–मधुरेश
काके दी हट्टी
होली आकर चली गयी थी। अपने निशान छोड़ गयी थी। सड़कों पर अबीर-गुलाल के धब्बे, रंगदार पानी के चहबच्चों के अलावा गुब्बारों की रबर बेशुमार चिथड़ों की तरह पड़ी थी। नगरपालिका के सफाईकर्मी अभी काम पर नहीं आये थे। उनके लिए होली अभी खत्म नहीं हुई थी। कॉलोनी के हर घर के आगे की दो-तीन सीढ़ियाँ, चबूतरा और बालकनी की रेलिंग रंगीन हो रही थी। और तो और बहुत-सी कारों पर भी रंग के छींटे थे। सुबह के आठ बजे थे लेकिन सड़क पर आवाजाही कम थी। कभी कोई स्कूटर या बाइक से गुज़र जाता तो सड़क के कुत्ते सचेत होकर गर्दन उठाते लेकिन कान और दुम हिला-फटक कर, उसका पीछा करने का इरादा मुल्तवी कर, वापस होली के धुँधआते कुन्दे की गुनगुनी राख के पास पसरे रह जाते।
यह आनन्द और आमोद-प्रमोद के बाद का प्रमाद था जो कॉलोनी में समाया था। होली के बहाने हफ्ते भर से लोग छक कर खा-पी रहे थे। लोग पहले खेलते फिर खाते, अपने घर, दोस्तों के घर, फिर अपने घर होली में धर्मपरायण लोगों ने भी अपनी लगाम ढीली कर दी और शंकर जी के नाम पर जम कर दारू सेवन कर लिया। काके अपनी कॉपी देख कर बता सकता है कि किस घर में कितनी बोतलें सोडा गया। इस हफ्ते सोडे ने कोक को पछाड़ दिया। काके दी हट्टी का फोन बजता ही रहा पिछले हफ्ते। बी ब्लॉक के हर नम्बर पर काके का सेवक बलदेव सोडे के क्रेट पहुँचाता रहा। बलदेव ने एक बार फिर अपनी माँग ताज़ा की ‘भ्राजी आप मोपेड या स्कूटर रख लो तो काम तेजी से हो जाय।’
काके ने अपनी पुरानी दलील दुहरा दी ‘सब नज़दीक के मकान हैं, बी ब्लॉक आखिर कितना बड़ा है। तू देख रहा है जगह किधर है स्कूटर खड़े करने की।’
काके संयुक्त अक्षर नहीं बोल पाता। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। चॉकलेट लेने वाली छोटी लड़की ने ही यह बात उससे कही थी, ‘‘अंकल मेरा नाम आपने बिगाड़ दिया।’
‘तू समिता है न अठत्तीस नम्बर।’
‘नम्बर तो ठीक है नाम गलत है। मैं हूँ स्मिता।’
‘की फर्क पैदा है’ काके ने चॉकलेट और जवाब दिया।
दरअसल काके बहल को नामों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। कॉलोनी के परिवारों को वह नम्बरों से जानता है। नाम सिर्फ उनके कॉपी में लिखे जाते हैं जो सामान उधार मँगवाते हैं और महीने की पहली-दूसरी तारीख तक आकर पेमेंट कर जाते हैं। वैसे ज़्यादा लोग फोन से सामान मँगाते हैं। काके दी हट्टी का फोन बजता ही रहता है, घुँघरू की तरह। बड़ी तुरत-फुरत सेवा है हट्टी की। इधर फोन उधर बन्दा हाज़िर। बलदेव के ही हाथ पैसे भिजवा देते हैं लोग। पता नहीं लोग आजकल व्यस्त हो गये हैं अथवा आलसी। या दोनों। सारे दिन दौड़-भाग करते हैं लेकिन नुक्कड़ की दुकान तक आना गवारा नहीं करते। एक टूथब्रश भी चाहिए तो फोन खनखना देते हैं। बलदेव का ही बूता है जो पवन-पुत्र की तरह दौड़ जाता है कभी एक सौ इकतीस को दूध, डबलरोटी और अण्डे देने कभी तीन सौ बीस में डिटर्जेण्ट पाउडर देने। बेईमान बिल्कुल नहीं है बलदेव। सीधे-सीधे पूरा पेमेंट लाकर काउंटर पर रख देता है। हाँ, दिन में दो-तीन बार गुटके का पाउच ज़रूर माँगता है जिसकी बन्दनवार स्टोर पर लटकी रहती है। इतने पर भी महँगा नहीं पड़ता बलदेव। दिल्ली में आजकल टहलुए मिलते कहाँ हैं। जो आता है, साल भर में अपनी हट्टी डाल कर अलग हो जाता है। बलदेव इलाहाबाद का है इसलिए टिका हुआ है। दुकान के बाहर कैम्प कॉट डाल कर सो जाता है। अच्छी-भली चौकीदारी हो जाती है।
किसी के काम में मीन-मेख निकालने की काके की आदत नहीं। कभी-कभी लोग खुली ब्रेड या पका हुआ दूध वापस कर जाते हैं ‘काके भैया नोट कर लो। खराब निकल गया।’
दो लेन छोड़ कर मुख्य सड़क पर काके का घर है। घर में माँ-बाप हैं जिन्हें काके मम्मी जी डैडी जी कहता है। पिछले साल काके का ब्याह हो गया, जी ब्लॉक की पिंकी मलहोत्रा से। जी ब्लॉक की पिंकी बी ब्लॉक के रहन-सहन से समझौता नहीं कर पायी, वह ज़्यादातर जी ब्लॉक में ही रहती है। नाते-रिश्तेदारों को खटका है, कि अगर पिंकी बी ब्लॉक से ऐसे ही दूर रही तो भूगोल के साथ उसकी इतिहास से भी खटपट हो जायेगी। पिंकी कालका जी के कॉल सेन्टर पर काम करती है, अठारह हज़ार तनख्वाह पाती है और ड्यूटी के वक्त-सलवार-कमीज़ की जगह पैंट-शर्ट पहनती है। काके के माँ-बाप को इसकी शिकायत है। शिकायतें उन्हें और भी हैं। पिंकी शाम चार बजे नौकरी पर जाती है, सुबह चार बजे लौटती है। टेबिल पर रखा खाना बिना गर्म किये खा लेती है और जो सोती है तो अगले दिन दो बजे तक चेत नहीं करती। उसे नहीं पता कब घर के बन्दे उठे, काम से लगे, कौन आया-गया, कितनी बार फोन बजा, कितनी बार कॉल बेल बजी। इतवार शनिवार की छुट्टी हुई तो भी पिंकी को फुर्सत नहीं। सेन्टल मार्केट में घूमना, खरीदारी करना, चाट खाना और लौटते टाइम दोनों हाथों में मेहँदी लगवा कर चले आना। अब करवा लो उससे क्या करवाओगे। कभी अपने शौहर को एक ग्लास पानी नहीं पकड़ाया तिस पर उससे कहना, ‘चन्दर मेरे बालों में क्लिप लगा दो; चन्दर ज़रा कोक पिला दो।’ काके हँसता-हँसता उसका हुक्म बजाता। मम्मी जी के ऐसा सिरदर्द शुरू होता कि आँख-कान मुँह दुपट्टे से लपेट कर बिस्तर पर पड़ जातीं। तीन-चार महीनों में मम्मी जी की शिकायतों की फाइल इतनी मोटी हो गयी कि न पिंकी से उठाई गयी न काके से। चन्द्र प्रकाश, जो अपना नाम चन्दर परकाश समझता और जिसे पूरा बी ब्लॉक काके के नाम से जानता, के पास इतना भी अवकाश नहीं होता कि वह माँ या पिंकी को समझाये। दोनों के लिए अच्छा बनते-बनते वह किसी के लिए अच्छा न रहा। माँ ने कहा, ‘अरे इतना भी क्या अच्छा कि बोट्टी को कुछ कहना ही नहीं।’ पिंकी ने कहा, ‘इतना अच्छा होना अच्छा नहीं होता। घर की चौधरी मम्मी जी, स्टोर का चौधरी बलदेव, चन्दर तो जैसे है ही नहीं।’
एक दिन अपने सारे कपड़े, सैन्डिलें और पर्स सँभाल कर पिंकी जी-ब्लॉक चली गयी। जाते-जाते चन्दर को बाँह दबा कर कह गयी, ‘मिलने की तड़प उट्ठे तो आ जाना जी-ब्लॉक।’
रात दस बजे काके दी हट्टी बढ़ाते वक्त काके को कभी-कभी अपनी बाँह पर दबाव महसूस हो जाता पर वह मन मसोस कर बी ब्लॉक अपने घर पहुँच जाता। उसे पता था पिंकी कॉल सेन्टर गयी हुई होगी। ऐसे में सिर्फ शनि, इतवार की तड़प ही चैन पा सकती थी। लेकिन वह अपने स्टोर का क्या करे जो शनिवार, इतवार सर्दी-गर्मी चौमासा हमेशा यानी साल में 365 दिन खुला रहता। खुलने के घण्टे भी बारह से ज़्यादा, कुल चौदह। सुबह आठ से दस बजे तक ज़रूर डैडी जी स्टोर सँभालते। काके नहा-धोकर दस बजे जो स्टोर में घुसता तो रात दस बजे ही फारिग होता। पास में घर था, फिर भी घर तक जाना मुश्किल था; वह बलदेव को भेज कर अपना खाना स्टोर पर ही मँगा लेता। ग्राहक उसके इतने अच्छे कि अगर वह खाना खा रहा हो तो अपने आप आलू चिप्स की बदनवार में से पैकेट निकाल, दस रुपये का नोट काउंटर पर रख देते।
यों तो बी ब्लॉक में हर जगह मकान बने हुए थे, काके दी हट्टी के पास एक बड़ा-सा प्लॉट खाली पड़ा था। पहले लोग अपने घरों का कचरा यहाँ डलवा देते। हवा के साथ जब दुर्गन्ध उड़ कर पड़ोस के घरों में जाने लगी, लोगों ने शोर मचाया। जमादारों को धमकाया गया। बी ब्लॉक की कल्याण परिषद ने प्लॉट के मालिकों को खबर भेजी कि वे इस पर या तो मकान बनवाये नहीं तो चारदीवारी बना कर ताला लगायें।
कुछ दिन की चुप्पी के बाद यकायक इस खाली प्लॉट में खलबली नज़र आने लगी। एक दिन कूड़ा उठाने वाला डम्पर आ गया जो शाम तक मटक-मटक कर कूड़ा उठाता रहा। मिट्टी गिराने वाली ट्रकें आ गयीं और देखते-देखते वहाँ गहरी नींव खुदने का काम शुरू हो गया। काके के कानों में खबर पड़ी कि यहाँ कोई मकान नहीं बनने जा रहा। ज़मीन के मालिकों ने ज़मीन का सौदा कर लिया है। खाली प्लॉट पर रात-दिन काम चला। सारे समय घर्र-घर्र करते ट्रक आते, सिमेन्ट, बालू, कंकरीट और सरिये गिरा कर चले जाते। रात में हैलोजन लाइटों से प्लॉट जगर-मगर करता और इमारत बनने का काम चलता। जल्द ही वहाँ बढ़ई और बिजली मिस्त्री भी नज़र आने लगे। काके के स्टोर में भी पान-मसाले, कोक और चिप्स की बिक्री बढ़ गयी।
जिस तरह नयी इमारत की रूप रेखा उभर कर सामने आ रही थी, यह स्पष्ट हो रहा था कि इस प्लॉट में सुपर स्टोर खोले जाने की तैयारी चल रही है। रात के चौकीदार राणा ने बताया ‘जी ब्लॉक के किसी सेठ ने इसे खरीदा है।’
उड़ती खबर के मजबूत खम्भे खड़े होने लगे। अण्डर ग्राउण्ड फूड बाज़ार बनाया गया। न जाने किस जादू से दोनों तरफ़ पौधों की कतार भी उगा दी गयी। काके हक्का-बक्क-सा प्लॉट पर हो रही उखाड़-पछाड़ और निर्माण देखता और बार-बार अपने स्टोर की चीज़ों को झाड़न से साफ़ करता। कोई पूछता तो कहता, ‘सुपर स्टोर की धूल ने मेरी हट्टी का तो भट्ठा बैठा देना है।’
यह आनन्द और आमोद-प्रमोद के बाद का प्रमाद था जो कॉलोनी में समाया था। होली के बहाने हफ्ते भर से लोग छक कर खा-पी रहे थे। लोग पहले खेलते फिर खाते, अपने घर, दोस्तों के घर, फिर अपने घर होली में धर्मपरायण लोगों ने भी अपनी लगाम ढीली कर दी और शंकर जी के नाम पर जम कर दारू सेवन कर लिया। काके अपनी कॉपी देख कर बता सकता है कि किस घर में कितनी बोतलें सोडा गया। इस हफ्ते सोडे ने कोक को पछाड़ दिया। काके दी हट्टी का फोन बजता ही रहा पिछले हफ्ते। बी ब्लॉक के हर नम्बर पर काके का सेवक बलदेव सोडे के क्रेट पहुँचाता रहा। बलदेव ने एक बार फिर अपनी माँग ताज़ा की ‘भ्राजी आप मोपेड या स्कूटर रख लो तो काम तेजी से हो जाय।’
काके ने अपनी पुरानी दलील दुहरा दी ‘सब नज़दीक के मकान हैं, बी ब्लॉक आखिर कितना बड़ा है। तू देख रहा है जगह किधर है स्कूटर खड़े करने की।’
काके संयुक्त अक्षर नहीं बोल पाता। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। चॉकलेट लेने वाली छोटी लड़की ने ही यह बात उससे कही थी, ‘‘अंकल मेरा नाम आपने बिगाड़ दिया।’
‘तू समिता है न अठत्तीस नम्बर।’
‘नम्बर तो ठीक है नाम गलत है। मैं हूँ स्मिता।’
‘की फर्क पैदा है’ काके ने चॉकलेट और जवाब दिया।
दरअसल काके बहल को नामों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। कॉलोनी के परिवारों को वह नम्बरों से जानता है। नाम सिर्फ उनके कॉपी में लिखे जाते हैं जो सामान उधार मँगवाते हैं और महीने की पहली-दूसरी तारीख तक आकर पेमेंट कर जाते हैं। वैसे ज़्यादा लोग फोन से सामान मँगाते हैं। काके दी हट्टी का फोन बजता ही रहता है, घुँघरू की तरह। बड़ी तुरत-फुरत सेवा है हट्टी की। इधर फोन उधर बन्दा हाज़िर। बलदेव के ही हाथ पैसे भिजवा देते हैं लोग। पता नहीं लोग आजकल व्यस्त हो गये हैं अथवा आलसी। या दोनों। सारे दिन दौड़-भाग करते हैं लेकिन नुक्कड़ की दुकान तक आना गवारा नहीं करते। एक टूथब्रश भी चाहिए तो फोन खनखना देते हैं। बलदेव का ही बूता है जो पवन-पुत्र की तरह दौड़ जाता है कभी एक सौ इकतीस को दूध, डबलरोटी और अण्डे देने कभी तीन सौ बीस में डिटर्जेण्ट पाउडर देने। बेईमान बिल्कुल नहीं है बलदेव। सीधे-सीधे पूरा पेमेंट लाकर काउंटर पर रख देता है। हाँ, दिन में दो-तीन बार गुटके का पाउच ज़रूर माँगता है जिसकी बन्दनवार स्टोर पर लटकी रहती है। इतने पर भी महँगा नहीं पड़ता बलदेव। दिल्ली में आजकल टहलुए मिलते कहाँ हैं। जो आता है, साल भर में अपनी हट्टी डाल कर अलग हो जाता है। बलदेव इलाहाबाद का है इसलिए टिका हुआ है। दुकान के बाहर कैम्प कॉट डाल कर सो जाता है। अच्छी-भली चौकीदारी हो जाती है।
किसी के काम में मीन-मेख निकालने की काके की आदत नहीं। कभी-कभी लोग खुली ब्रेड या पका हुआ दूध वापस कर जाते हैं ‘काके भैया नोट कर लो। खराब निकल गया।’
दो लेन छोड़ कर मुख्य सड़क पर काके का घर है। घर में माँ-बाप हैं जिन्हें काके मम्मी जी डैडी जी कहता है। पिछले साल काके का ब्याह हो गया, जी ब्लॉक की पिंकी मलहोत्रा से। जी ब्लॉक की पिंकी बी ब्लॉक के रहन-सहन से समझौता नहीं कर पायी, वह ज़्यादातर जी ब्लॉक में ही रहती है। नाते-रिश्तेदारों को खटका है, कि अगर पिंकी बी ब्लॉक से ऐसे ही दूर रही तो भूगोल के साथ उसकी इतिहास से भी खटपट हो जायेगी। पिंकी कालका जी के कॉल सेन्टर पर काम करती है, अठारह हज़ार तनख्वाह पाती है और ड्यूटी के वक्त-सलवार-कमीज़ की जगह पैंट-शर्ट पहनती है। काके के माँ-बाप को इसकी शिकायत है। शिकायतें उन्हें और भी हैं। पिंकी शाम चार बजे नौकरी पर जाती है, सुबह चार बजे लौटती है। टेबिल पर रखा खाना बिना गर्म किये खा लेती है और जो सोती है तो अगले दिन दो बजे तक चेत नहीं करती। उसे नहीं पता कब घर के बन्दे उठे, काम से लगे, कौन आया-गया, कितनी बार फोन बजा, कितनी बार कॉल बेल बजी। इतवार शनिवार की छुट्टी हुई तो भी पिंकी को फुर्सत नहीं। सेन्टल मार्केट में घूमना, खरीदारी करना, चाट खाना और लौटते टाइम दोनों हाथों में मेहँदी लगवा कर चले आना। अब करवा लो उससे क्या करवाओगे। कभी अपने शौहर को एक ग्लास पानी नहीं पकड़ाया तिस पर उससे कहना, ‘चन्दर मेरे बालों में क्लिप लगा दो; चन्दर ज़रा कोक पिला दो।’ काके हँसता-हँसता उसका हुक्म बजाता। मम्मी जी के ऐसा सिरदर्द शुरू होता कि आँख-कान मुँह दुपट्टे से लपेट कर बिस्तर पर पड़ जातीं। तीन-चार महीनों में मम्मी जी की शिकायतों की फाइल इतनी मोटी हो गयी कि न पिंकी से उठाई गयी न काके से। चन्द्र प्रकाश, जो अपना नाम चन्दर परकाश समझता और जिसे पूरा बी ब्लॉक काके के नाम से जानता, के पास इतना भी अवकाश नहीं होता कि वह माँ या पिंकी को समझाये। दोनों के लिए अच्छा बनते-बनते वह किसी के लिए अच्छा न रहा। माँ ने कहा, ‘अरे इतना भी क्या अच्छा कि बोट्टी को कुछ कहना ही नहीं।’ पिंकी ने कहा, ‘इतना अच्छा होना अच्छा नहीं होता। घर की चौधरी मम्मी जी, स्टोर का चौधरी बलदेव, चन्दर तो जैसे है ही नहीं।’
एक दिन अपने सारे कपड़े, सैन्डिलें और पर्स सँभाल कर पिंकी जी-ब्लॉक चली गयी। जाते-जाते चन्दर को बाँह दबा कर कह गयी, ‘मिलने की तड़प उट्ठे तो आ जाना जी-ब्लॉक।’
रात दस बजे काके दी हट्टी बढ़ाते वक्त काके को कभी-कभी अपनी बाँह पर दबाव महसूस हो जाता पर वह मन मसोस कर बी ब्लॉक अपने घर पहुँच जाता। उसे पता था पिंकी कॉल सेन्टर गयी हुई होगी। ऐसे में सिर्फ शनि, इतवार की तड़प ही चैन पा सकती थी। लेकिन वह अपने स्टोर का क्या करे जो शनिवार, इतवार सर्दी-गर्मी चौमासा हमेशा यानी साल में 365 दिन खुला रहता। खुलने के घण्टे भी बारह से ज़्यादा, कुल चौदह। सुबह आठ से दस बजे तक ज़रूर डैडी जी स्टोर सँभालते। काके नहा-धोकर दस बजे जो स्टोर में घुसता तो रात दस बजे ही फारिग होता। पास में घर था, फिर भी घर तक जाना मुश्किल था; वह बलदेव को भेज कर अपना खाना स्टोर पर ही मँगा लेता। ग्राहक उसके इतने अच्छे कि अगर वह खाना खा रहा हो तो अपने आप आलू चिप्स की बदनवार में से पैकेट निकाल, दस रुपये का नोट काउंटर पर रख देते।
यों तो बी ब्लॉक में हर जगह मकान बने हुए थे, काके दी हट्टी के पास एक बड़ा-सा प्लॉट खाली पड़ा था। पहले लोग अपने घरों का कचरा यहाँ डलवा देते। हवा के साथ जब दुर्गन्ध उड़ कर पड़ोस के घरों में जाने लगी, लोगों ने शोर मचाया। जमादारों को धमकाया गया। बी ब्लॉक की कल्याण परिषद ने प्लॉट के मालिकों को खबर भेजी कि वे इस पर या तो मकान बनवाये नहीं तो चारदीवारी बना कर ताला लगायें।
कुछ दिन की चुप्पी के बाद यकायक इस खाली प्लॉट में खलबली नज़र आने लगी। एक दिन कूड़ा उठाने वाला डम्पर आ गया जो शाम तक मटक-मटक कर कूड़ा उठाता रहा। मिट्टी गिराने वाली ट्रकें आ गयीं और देखते-देखते वहाँ गहरी नींव खुदने का काम शुरू हो गया। काके के कानों में खबर पड़ी कि यहाँ कोई मकान नहीं बनने जा रहा। ज़मीन के मालिकों ने ज़मीन का सौदा कर लिया है। खाली प्लॉट पर रात-दिन काम चला। सारे समय घर्र-घर्र करते ट्रक आते, सिमेन्ट, बालू, कंकरीट और सरिये गिरा कर चले जाते। रात में हैलोजन लाइटों से प्लॉट जगर-मगर करता और इमारत बनने का काम चलता। जल्द ही वहाँ बढ़ई और बिजली मिस्त्री भी नज़र आने लगे। काके के स्टोर में भी पान-मसाले, कोक और चिप्स की बिक्री बढ़ गयी।
जिस तरह नयी इमारत की रूप रेखा उभर कर सामने आ रही थी, यह स्पष्ट हो रहा था कि इस प्लॉट में सुपर स्टोर खोले जाने की तैयारी चल रही है। रात के चौकीदार राणा ने बताया ‘जी ब्लॉक के किसी सेठ ने इसे खरीदा है।’
उड़ती खबर के मजबूत खम्भे खड़े होने लगे। अण्डर ग्राउण्ड फूड बाज़ार बनाया गया। न जाने किस जादू से दोनों तरफ़ पौधों की कतार भी उगा दी गयी। काके हक्का-बक्क-सा प्लॉट पर हो रही उखाड़-पछाड़ और निर्माण देखता और बार-बार अपने स्टोर की चीज़ों को झाड़न से साफ़ करता। कोई पूछता तो कहता, ‘सुपर स्टोर की धूल ने मेरी हट्टी का तो भट्ठा बैठा देना है।’
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