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श्रंगार-विलास >> वयस्क किस्से

वयस्क किस्से

मस्तराम मस्त

प्रकाशक : श्रंगार पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 774
आईएसबीएन :

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मस्तराम के मस्त कर देने वाले किस्से

वह कुछ मिनटों के लिए कल्पना करती रही कि सामने बिस्तर पर अधलेटा उसका पति उसे बेशर्मी से देख रहा है। फिर उसे यह याद कर कुछ झुंझलाहट हुई हो आयी, कि उसके पति ने उसे इस तरह तो पता नहीं कब से नही देखा होगा। उसने सोचा, जब से वे इस घर में आये हैं, शायद एक-दो बार ही ऐसा हुआ होगा। उसे अपने पति पर हल्का गुस्सा आया। शादी के पहले कैसी मीठी-मीठी बातें करता था, लेकिन आजकल तो वह हर दिन थका ही होता है। यहां तक कि शनिवार, इतवार को भी पता नहीं कहाँ उलझा रहता है। लगता है कि काम के अलावा उसे कुछ सूझता ही नहीं!

समझदारी इसी में थी, कि वह इन सब बातों को भूल जाये और अपने सुंदर-सुडौल शरीर को निहारकर खुद में ही खुश रहे। वह पुनः दर्पण में अपने शरीर को बारीकी से निहारने लगी। अपने ही शरीर पर मुग्ध होने से उसके गालों और वक्षों में कुछ लालिमा आ गई थी। पिछले कुछ समय सालों में उसके पेट में कुछ उभार आने लगा था। ठीक से मुआयना करने के लिए पहले तो वह घूमने लगी, फिर खुद घूमने की बजाय उसने तीन पाटों वाले दर्पण के दायीं और बायीं दोनों हिस्से ऐसे कोण में घुमा दिये कि अब वह अपने शरीर के सामने और कुछ हद तक दायीं तथा बायीं ओर से एक साथ देख सकती थी। उसकी चिकनी त्वचा पानी में भीगकर हल्की खुरदरी हो गई थी।

दायें और बायें दोनों दर्पणों में गंभीरता से मुआयना करने के बाद उसने निष्कर्ष निकाला कि उसका पेट शायद आधा इंच बाहर आया होगा। उसने साँस को खींचकर पेट अंदर किया और फिर साँस छोड़कर देखा। यदि कोई उसे इस अवस्था में देखता, तभी समझ पाता है कि उसका पेट कितना बाहर निकला है। यह जानकर उसे तसल्ली हुई कि, कपड़ों में तो, अभी कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता।

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