उपन्यास >> अक्षरद्वीप अक्षरद्वीपप्रणव कुमार वन्द्योपाध्याय
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‘अक्षरद्वीप’ आज के मूल्यों के अंतर्गत रामकथा के ‘सुंदरकांड’ का एक पुनर्पाठ है...
‘अक्षरद्वीप’ आज के मूल्यों के अंतर्गत रामकथा के ‘सुंदरकांड’ का एक पुनर्पाठ है। इस उपन्यास में वैदेही, रावण और महावीर की भूमिकाएँ जिन सीमाओं तक संघातपूर्ण हैं, वे आज के अतिरिक्त अतीत की भी पहचान हैं। यह मनुष्य का निरंतर जारी एक असमाप्य प्रयास है। अगर आज हम ‘अक्षरद्वीप’ की कथाभूमि को कुछ सीमा तक व्याख्यायित कर पाए, कथाकार शायद किसी न किसी तरह पंक्ति-दो पंक्ति तक कुछ आगे निकल गया।
प्रणव कुमार वंद्योपाध्याय आज के तमाम हिंदी कथाकारों में कहाँ खड़े हैं, कहना कठिन होगा। फिर भी, हम कह सकते हैं कि आज के परिपेक्ष्य में लेखक को मनुष्य और समय की पहचान किसी सीमा तक आकर खड़ी हो गई। कल की प्रतीक्षा में। संभवतः किसी न किसी प्रकार की लाग-लपेट के बिना कथाकार अपनी खोज से उस बिन्दु तक पहुँच गया, जो है संसार का आदि आख्यान। असमाप्य भी।
‘अक्षरद्वीप’ किसी हद तक मनुष्य की एक यात्रा भी है। यात्रा के अतिरिक्त पृथ्वी का एक अनकहा इतिहास भी, जो प्रतिक्षण अपना सब कुछ बदल रहा है। ‘अक्षरद्वीप’ वैदेही का वह प्रसंग है, जिसमें तमाम संकटों के बीच स्त्री में पराजय का बोध नहीं होता है। ऐसा एक कारण संभव हो पाता है कि पुरुष और स्त्री के मध्य का सूत्र सारी सीमाओं के बाद अक्षरों से बाहर है। इस कथा में महावीर राघव से भी बहुत आगे चले गए हैं। राघव की शक्ति के बाहर यह वीर संसार को जिस प्रकार देख रहा होता, पता लगने में कुछ भी कठिनाई नहीं होती कि अंततः वही पुरुष है सामने के तमाम विषयों को मेरुदंड। अप्रतिम महावीर का ज्ञान हमें अधिक तो नहीं होता, फिर भी हम बैठे हैं कि आगे का समय हमें कुछ और जानने का अवसर अवश्य देगा। सब कुछ जाने बिना ही।
प्रणव कुमार वंद्योपाध्याय आज के तमाम हिंदी कथाकारों में कहाँ खड़े हैं, कहना कठिन होगा। फिर भी, हम कह सकते हैं कि आज के परिपेक्ष्य में लेखक को मनुष्य और समय की पहचान किसी सीमा तक आकर खड़ी हो गई। कल की प्रतीक्षा में। संभवतः किसी न किसी प्रकार की लाग-लपेट के बिना कथाकार अपनी खोज से उस बिन्दु तक पहुँच गया, जो है संसार का आदि आख्यान। असमाप्य भी।
‘अक्षरद्वीप’ किसी हद तक मनुष्य की एक यात्रा भी है। यात्रा के अतिरिक्त पृथ्वी का एक अनकहा इतिहास भी, जो प्रतिक्षण अपना सब कुछ बदल रहा है। ‘अक्षरद्वीप’ वैदेही का वह प्रसंग है, जिसमें तमाम संकटों के बीच स्त्री में पराजय का बोध नहीं होता है। ऐसा एक कारण संभव हो पाता है कि पुरुष और स्त्री के मध्य का सूत्र सारी सीमाओं के बाद अक्षरों से बाहर है। इस कथा में महावीर राघव से भी बहुत आगे चले गए हैं। राघव की शक्ति के बाहर यह वीर संसार को जिस प्रकार देख रहा होता, पता लगने में कुछ भी कठिनाई नहीं होती कि अंततः वही पुरुष है सामने के तमाम विषयों को मेरुदंड। अप्रतिम महावीर का ज्ञान हमें अधिक तो नहीं होता, फिर भी हम बैठे हैं कि आगे का समय हमें कुछ और जानने का अवसर अवश्य देगा। सब कुछ जाने बिना ही।
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