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आदिकांड

प्रणव कुमार वन्द्योपाध्याय

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :435
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3071
आईएसबीएन :000000

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उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के ग्रामीण आंचल में लड़ी गई आजादी की लड़ाई पर आधारित उपन्यास...

Aadikand

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के ग्रामीण आंचल में लड़ी गई आजादी की लड़ाई ही ‘आदिकांड’ की कथा भूमि है। इस रचना में मनुष्य की जिजीविषा से लेकर मानवता के अपमान, और प्रेम, करुणा, यौनाचार से लेकर विध्वंश तक एक-एक विषय को कथाकार ने जिस सहज भाव से और जिस सूक्ष्मता से प्रांजल भाषा में प्रस्तुत किया है, समकालीन कथा-साहित्य में ऐसे उदाहरण गिने चुने हैं। यह रचना कुल मिला कर एक अनादि आख्यान है। अनादि इसलिए कि इसकी कथा न तो कहीं आरम्भ होती है और न कहीं समाप्त। इस नैरन्तर्य में जीवन के अनुभव को धूल-मिट्टी से बटोरे हुए दस्तावेज के द्वारा कथाकार ने जो कलात्मक विस्तृति दी, उसकी रसाद्रता पाठक को अभिभूत ही नहीं करतीं, स्वयं के पुनराविष्कार में एक जबरदस्त भूमिका भी निबाहती है।
प्रणव प्रकार वंद्योपाध्याय के रचनाकर्म में एक विशिष्ट कड़ी के रूप में प्रस्तुत है आदिकांड।

आदिकाण्ड

1

बनगासा भर में वंशीधर पाठक बहुत खास आदमी माना जाता है। इतनी कच्ची उम्र में बनगासा तो क्या, अड़ोस-पड़ोस के पच्चीस कोसों में भी कोई आज तक उस जैसा मशहूर नहीं हुआ है। वह मैट्रिक पास है, ब्राह्मण है और अंग्रेजी जानता है।
-इन तीनों वजहों से उसकी इतनी अहमियत है। इसके अलावा वंशीधर की अहमियत की एक बहुत बड़ी वजह यह है कि उसके परदादा पंडित ब्रह्मदेव पाठक अपने वक्त के मशहूर वैद्य और ज्योतिषी थे। यहां आने से पहले वह काशी में थे। एक बार कांदी के नवाब साहब ने अपने गुर्दे की बीमारी के इलाज के लिए उन्हें बाइज़्ज़त आने का निमंत्रण दिया और जब इलाज कामयाब हो गया, बनगासा में एक पक्की इमारत के साथ जमीन के दो सौ बीघे उपहार में दे दिए। नवाब साहब ने इमारत को पूरा साल भर लगाकर बहुत आलीशान बनाया था। उन दिनों बनगासा सिर्फ एक छोटा-सा गांव था। चालीस प्रतिशत आबादी हिन्दुओं की थी और बाकी मुसलमानों की। वैद्यकी के हुनर और दौलत की वजह से पंडित ब्रह्मदेव एकबारगी बहुत मशहूर और इज़्ज़तदार हो गए थे। हिन्दू हो चाहे मुसलमान, हर कोई उनके पांव छूता था।
वंशीधर जब मैट्रिक पास हुआ, बनगासा, कांदी, सिमरी, बड़ौथ, यहां तक कि उबारी तक इतनी शिक्षा पाने वालों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं थी। वह काशी जाकर पढ़ाई करता रहा और जब मैट्रिक के नतीजे की खबर के साथ बनगासा वापस आया, लोगों ने उसे सर आंखों पर बिठा लिया, तब उसकी महती इच्छी थी कि काशी जाकर बी.ए. तक की पढ़ाई करेगा और बनगासा के प्राइमरी स्कूल में मास्टर बन जाएगा। सोचता था, धीरे-धीरे जब स्कूल की तरक्की होगी और मैट्रिक तक की पढ़ाई यहीं होने लगेगी, बनगासा का नाम थोड़ा और रोशन होगा।

वैसे उसके मन में थोड़ी-सी दबी हुई इच्छा इस बात की भी थी कि फिर देर-सवेर वह स्कूल का हैडमास्टर बन जाएगा। उसे इस बात का सख्त दुःख था कि पंडित ब्रह्मदेव के वंशजों में विद्या का प्रचलन जितना होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ। इसीलिए कभी भी सिलसिला शुरू होता तो वह घरभर में हरेक को जितना भी हो सकता है, पढ़ने के लिए उत्साहित करता।
किंतु वंशीधर खुद दुबारा काशी जाकर आगे की पढ़ाई नहीं कर पाया। मैट्रिक के नतीजे की खबर आने के महीने भर बाद एक दिन अचानक बाप ने आंखें बंद कर लीं। जमीन के बंटवारे को लेकर कचहरी में मुकदमा चल रहा था। इस मामले को लेकर शिवनाथ अंदरूनी तौर पर बहुत परेशान रहा और आखिर में एक दिन कचहरी के अंदर ही बेहोश हो गया। ज़िंदगी में वह पहली बार बेहोश हुआ था। आखरी बार भी। बेहोश होने के तीन घंटे बाद दिल की धड़कन बंद हो गई थी।
मुकदमे का फैसला शिवनाथ की मौत के ठीक बीसवें दिन सुनाया गया। मुकदमा उसके खिलाफ था। बड़े भाई रामपूजन—जिनमें कोई सात वर्ष तक झगड़े-फसाद और आखिर में कचहरी तक जाकर मुदकमाबाजी चलती रही—जीत गए थे।

वंशीधर को लोगों ने सलाह दी कि वह बिलकुल न घबराए और इस फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील करे। जमीन-जायदाद का मामला है। इतनी जल्दी हिम्मत हारने से काम नहीं चलेगा। सुबह-शाम लोग आते और इत्मीनान से दुनियादारी की बातें समझाते रहते। उसने किसी के मुंह पर कभी मुखालफत तो नहीं की, लेकिन शुरू से ही उसने अपना इरादा पक्का कर लिया था। इतने सलाह-मशविरों के बावजूद उसने इलाहाबाद जाकर इसलिए अपील नहीं की कि वह झगड़े को खत्म कर देना चाहता था। इसके अलावा पंडित रामपूजन के लिए उसके मन में बहुत आदर भाव था। शुरू से ही उसका यकीन था कि रामपूजन झूठ की तरफदारी कभी नहीं करेंगे। इस यकीन की वजह से उसने शिवनाथ से एक दफा मुकदमे के बारे में अपनी अंदरूनी राय जाहिर की थी, तो शुरू में बाप-बेटे में देर तक कहा-सुनी चलती रही और उसके बाद गुस्से की वजह से शिवनाथ ने हफ्तेभर के लिए बेटे से बोलचाल बंद कर दी थी। उस दिन के बाद जब तक शिवनाथ जिंदा थे, वंशीधर ने कभी भी मुकदमे की बात नहीं उठाई थी।
रामपूजन को ब्रह्मदेव पाठक ने अपने हाथों गढ़ा था। इस वजह से ब्रह्मदेव को वह सिर्फ अपने बुजुर्ग नहीं, गुरु भी मानते रहे थे।
ब्रह्मदेव ने गुरु के सान्निध्य में रहकर शिक्षा पाई थी। उस शिक्षा में सत्य-आचरण एक बहुत बड़ा पाठ था। ब्रह्मदेव आखरी सांस तक एक पल भी उस पाठ को भूले नहीं थे।
इसका असर रामपूजन पर भी इतना पड़ा कि उन्हें कभी किसीने न तो लालच करते पाया न स्वार्थ के लिए झूठ बोलते। जिंदगी में कई बार कितनी ही तरह के संकट आए लेकिन रामपूजन बहुत बड़ी कीमत चुकाकर भी अपने रास्ते से नहीं हटे। उन्हें यकीन था, मार्गभ्रष्ट होना और गुरु के अपमान के बीच कोई फर्क नहीं है। वह जीवनभर कभी भी वाकई मार्गभ्रष्ट नहीं हुए थे।

बनगासा का यह घर बंटते-बंटते जब बहुत छोटा पड़ गया था, रामपूजन कांदी चले गए। कांदी में छोटे लड़के ने कपड़े की एक दुकान खोल ली जो गुजारे के लिए काफी थी। अब कई बरस हो गए, वह अपने लड़के के साथ वहीं रह रहे थे।
कचहरी से हुक्मनामा आने से पहले ही वंशीधर ने तैयारियां कर ली थीं कि बंटवारा ठीक-ठाक हो जाए। घर में मातम-सा छा गया था। तारा ने कभी बेटे को कलेजा चीर कर तो नहीं दिखाया, लेकिन वंशीधर समझ गया था, बाप की मौत और उसके साथ मुकदमे की हार ने मां को हर तरह से तोड़ दिया था। फिर वह अकसर ही बीमार रहने लगी थी। इससे पहले कभी भी उसे सांस की तकलीफ न हुई थी। अब अकसर दमे का दौरा पड़ने लगा था।
वंशीधर की शादी हुई थी कोई एक वर्ष पहले। अब तय यह किया गया कि जल्द गौना हो जाए और बहू आकर गृहस्थी संभाल ले। सत्रह बरस का वंशीधर फिर नौ बरस की कमला को घर ले आया था।
इसके बाद बनगासा में ही काम-धंधे की तलाश शुरू हुई। पुरखों की यह जमीन छोड़कर तंगी की वजह से कहीं और बसने का ख्याल शुरू में वंशीधर के दिमाग में आया जरूर था लेकिन उसने उसे कोई अहमियत नहीं दी। सोचा, जहां पैदा हुआ, पला, उस जमीन की जड़ खून की गहराई में इतनी होती है कि वहां से कैसे कोई छूट जाएगा।
सालभर तक बेकारी रही।
कोशिश करने से कांदी के डाकखाने में शायद नौकरी मिल जाती, लेकिन वंशीधर शुरू से चाहता यही था कि किसी तरह प्राइमरी स्कूल में मास्टर लग जाए। शायद इंतजार कर पाने से ऐसा मुमकिन भी होता लेकिन अचानक इस कदर धर-पकड़ शुरू हुई कि बनगासा का स्कूल ही बंद हो गया। बाद में पता लगा, इस स्कूल का हैडमास्टर बम मारकर अंग्रेजी हुकूमत को खत्म करने की कोशिश करने वालों के संग मिला हुआ था। जैसे ही यह भेद खुला, हैडमास्टर गिरफ्तार कर लिया गया और स्कूल के दरवाजे पर ताला लग गया।

हैडमास्टर के अलावा दो और मास्टर भी थे। दरोगा अकसर उन्हें थाने में बुला लेता और इशारा कर देता कि उनके दिन अब गिनती के रह गए हैं। कई बार वे दोनों रात-रातभर थाने में बंद रहते और सुबह जब रिहा किए जाते, उनके चेहरे एकदम पीले नजर आते। दारोगा के पास कोई पक्का सबूत तो नहीं था लेकिन उसका यकीन यही था कि दोनों के दोनों मास्टर कबूतर की तरह सादे नहीं, बल्कि बाज की तरह घाघ हैं।
स्कूल जब बंद हो गया, वंशीधर को लगा, अब बाप-दादा के घर देहरी को माथा टेककर रोटी-पानी के जुगाड़ में कहीं और डेरा डालना ही पड़ेगा। ठीक उन्हीं दिनों लकड़ी के कारोबार की एक कम्पनी यहां खुल गई और उसे नौकरी मिल गई। कंपनी थी अंग्रेज की। इलाहाबाद में टॉमस साहब की तिज़ारत विलायती शराब और रंग बनाने की थी। अब उन्होंने यहां, बनगासा में ठेके में जंगल की लकड़ी खरीद कर हिन्दुस्तान भर के शहरों में भेजने का कारोबार शुरू कर दिया।
टॉमस साहब पहले फौज में थे। कर्नल का ओहदा था। एक दिन घुड़सवारी करते हुए घोड़े से ऐसे गिरे कि दायीं टांग घुटने के नीचे से बेकार हो गई। पूरे छह महीने फौजी अस्पताल में रहे। जब छुट्टी मिली, एक टांग गायब थी।
अब तक टॉमस साहब कुंआरे थे। जब भी जो औरत हासिल हो गई, उसी को एक अरसे के लिए कबूल कर लिया। लेकिन टांग कट गई तो टॉमस साहब ने जिस औरत का हाथ पकड़ा, वह फौज के ही एक सिपाही की बेवा थी। तीन बच्चों की मां को उन्होंने अपनी बीवी का दर्जा दिया और बच्चों को पूरे दिल से कबूल कर लिया।

शादी कर घर बसा लिया तो फिर विलायत वापस जाने की बात भी दिल से निकाल दी। इस बात का यों कोई कागजी सबूत तो नहीं है लेकिन हकीकत यही थी कि फौज से निकल जाने के बाद टॉमस साहब दिल से अंग्रेज नहीं रह गए थे।
वंशीधर को जब मालूम हुआ कि अंग्रेजों की तिज़ारत बनगासा में खुलनेवाली है, वह धोती, कोट और चप्पल पहनकर टॉमस साहब से मिलने चला गया। यह कोट एक अरसा पहले शादी के वक्त ससुराल वालों से मिला था, लिहाजा अब काफी छोटा पड़ गया था। लेकिन उसने उसकी सलवटों को हाथ से कई बार दबाकर बराबर करने की नाकाम कोशिश की और आखिर पहन लिया। पहनने के बाद देखा, दो बटन गायब थे, और एक का सिर्फ आधा ही मौजूद था। बंद गले का कोट था। गले के पास के हिस्से की सिलाई खासी ढीली हो गई थी। खैर, उसने इन बातों की परवाह नहीं की। बनगासा में कोट पहनकर डोलने वाले लोग हैं ही कितने ? वंशीधर ने भी इस कोट का इस्तेमाल हमेशा नहीं किया। जब कभी कोई खास मौका आता संदूक से निकालकर वह इसे पहनता और बड़े रौब से फिरता रहता।
कोट तो पहन लिया लेकिन अब जूतों की कमी खलने लगी थी। अंग्रेज ठहरा लाट की जात। उसके सामने चप्पल पहनकर जाने में वंशीधर अंदर-ही-अंदर कुछ अचकचा-सा रहा था, लेकिन अब इतना मुमकिन नहीं था कि वह बाजार जाता और चार-पांच रुपये देकर जूते का एक जोड़ा खरीद लाता।
वंशीधर का दिल खासा धड़क रहा था। अंग्रेज से मिलना है, चूहा-बिल्ली से नहीं। बात करीने से नहीं की तो गर्दन पकड़कर बाहर निकाल देगा। लेकिन जब वह टॉमस साहब के सामने पहुंच गया तो दो मिनट के अंदर सारा डर निकल गया। साहब हाथ में चाय का गिलास लिए टूटी-फूटी हिंदी में बोल रहे थे। वंशीधर को अंग्रजी आती थी। पूरे बनगासा में इस वजह से उसका खासा रौब भी था। अंग्रेजी जानने का असर साहब पर इतना हुआ कि तीस रुपये महीना पर उसे मैनेजर का ओहदा मिल गया। बिचारा सोच रहा था कि बीसेक रुपये महीना पर मुंशीगिरी का काम मिल जाए तो वह समझ लेगा, वक्त उतना बुरा नहीं है जितना की लोग बताते हैं। लेकिन चूंकि वह ईमानदार था, साहब के सामने हाथ जोड़ दिए, ‘‘हुजूर जिंदगी में यह पहली नौकरी है। मैनेजर का नहीं, कोई छोटा-मोटा काम दो। जी-जान लगाकर मेहनत करूंगा। जितना कुछ मिलेगा, उसीसे संतोष कर लूंगा। बहुत बड़ा सपना देखकर आसमान से गिरना नहीं चाहता।’’

टॉमस साहब देर तक ठठाकर हंसे। हंस चुके तो बोले, ‘‘आज मंडे है। एक वीक बाद आओ काम शुरू कर दो। नौकरी में लगने का कागज भी तभी मिलेगा।’’
वंशीधर साहब को हाथ जोड़कर नमस्ते की और बाहर निकल आया। नौकरी पा जाने की वजह से मन में लहरें उठ रही थीं। वह तय नहीं कर पा रहा था कि ऋषि समान पंडित ब्रह्मदेव के इस बिखरते कुनबे को वह कैसे समेटकर रख पाएगा।
हफ्तेभर बाद टॉमस साहब से मिलने गया तो पता लगा, वह इलाहाबाद वापस चले गए हैं। लेकिन वंशीधर की बहाली उसी दिन से हो गई। साहब चिट्ठी पर दस्तखत कर छोड़ गए थे कि न्यू इण्डिया ट्रेडिंग कंपनी में वंशीधर पाठक मैनेजर के ओहदे पर मुर्कार किया गया है।
कंपनी के दफ्तर में बाबू के अलावा चार और लोगों को साहब इलाहाबाद से ले आए थे। वे सब दिनभर टॉमस साहब को अजीबोगरीब किस्से सुनाते रहते। मैनेजर को किस्से-कहानियों में कोई दिलचस्पी कभी नहीं रही। शुरू से ही वह गंभीर तबियत का रहा है। हाथ में काम नहीं रहता तो अखबार पढ़ता या दर्शन या धर्म पर किसी किताब के पन्ने खोल लेता।
यहां दफ्तर जरूर खुल गया था, अभी काम शुरू नहीं हुआ था। कंपनी को जंगल ठेके पर मिल गया था, लेकिन लकड़ियों के काटने का काम शुरू होने में अभी महीने-दो महीने की देर थी। कभी-कभी जब इलाहाबाद से तार आ जाता, मैनेजर साहब से मशवरा करने इलाहाबाद पहुंचता।
काम अभी भले ही शुरू नहीं हुआ था तो भी मैनेजर को अपनी जिम्मेदारी का ख्याल पूरा-पूरा रहा है। वह ठीक नौ बजे दफ्तर पहुंचता और छह बजने से पहले कुर्सी छोड़कर न उठता।

दफ्तर में कई दफा वह आंखें बंद किए कंपनी के कारोबार के बारे में सोचता रहता या कभी-कभी अकेले ही निकल पड़ता और जंगल की तरफ बढ़ जाता। उसे हमेशा यह डर रहता कि उसकी वजह से कंपनी या मालिक को किसी तरह का घाटा नहीं होना चाहिए। घाटा अगर ना भी हो, मुनाफा कम होने की जिम्मेदारी भी मैनेजर अपने ही ऊपर मानता था। लिहाजा वह जंगल से लौटकर एक कागज पर अपने मुआयने की रिपोर्ट साहब को इलाहाबाद के पते पर भेज देता।
अपने मैनेजर की अंग्रेजी और जिम्मेदारी के ख्याल को साहब ने इतना सराहा कि पहली चिट्ठी पाने के बाद सोने की एक विलायती कलम उन्हें तोहफे में डाक से भिजवा दी।
बनगासा के लिए यह खबर मामूली नहीं है।
बाजार-भर में यह खबर फैल गई तो मैनेजर की इज्जत थोड़ी और बढ़ गई। यहां तक कि थाने से दारोगा भी आकर बधाई के पुल बांध गया। जगदम्बा दारोगा किसी से सीधे मुंह बात कर ले, ऐसा अकसर नहीं होता था। समूचा बनगासा कांपता है जगदम्बा के सामने। सुनने में आया था, स्कूल के हैडमास्टर को फांसी की सज़ा दिलवाने के लिए वह हर तरह की तैयारी कर रहा था।
कंपनी के दफ्तर में जो लोग काम करते थे, तोहफे की बात को उन्हीं लोगों ने फैलाया था।

घर आकर वंशीधर ने मां से टॉमस साहब की दरियादिली का ज़िक्र किया तो वह घंटाभर सिसकती रही। तारा को अपने बेटे पर शुरू से ही नाज रहा है। कई बार वह लोगों को सुनाकर कहती भी रही थी कि मौसम की तरह सारे दिन बराबर नहीं होते। ऊपर वाले ने दुख-दर्द दिए हैं तो खुशी भी वही देगा...लेकिन अब जब वाकई खुशी की घड़ी आई है, शिवनाथ मौजूद नहीं थे। यही वजह थी कि इतनी खुशी में भी तारा का कलेजा फटा जा रहा था।
इस घर में ब्रह्मदेव पाठक के वंशज सात हिस्सों में बंटकर बरस करते हैं। जो पक्की इमारत है, उसके तीन हिस्से हैं। बाकी लोगों ने आंगन के चारों तरफ मिट्टी से दीवार बनवाकर ऊपर खपरैल के छप्पर डाल लिए हैं। सबका घर एक जैसा नहीं है। सिर्फ हर घर की तंगी एक जैसी है। अब कोई ब्रह्मदेव पाठक के बारे में नये सिरे से जान ले तो यकीन नहीं करेगा कि यहां उनके कुनबे के लोग रहते हैं।
ब्रह्मदेव के पोते शिवनाथ की तीन लड़कियां थीं। तीन में से दो सौरी में ही खप गईं। और जो बाकी बची थी, शादी के बाद ससुराल जाकर काले बुखार से खत्म हो गई। वंशीधर चूंकि अपने बाप का अकेला लड़का था, उसे घर का उतना ही हिस्सा मिला, जितना शिवनाथ को हासिल हुआ था।
इमारत के जो तीन हिस्से हैं, वे सबके सब बराबर नहीं हैं। शिवनाथ का हिस्सा सबमें सबसे बड़ा और सामने की तरफ है।
इस घर का बंटवारा एक ही दिन में नहीं हुआ, वक्त के साथ घर बंटा और हिस्सेदारों में कहा-सुनी शुरू हो गई। पहले ये बातें बाहर नहीं जाती थीं। अब बनगासा भर में पाठक-कुनबे की चर्चा होती है।

तोहफे की खबर सुनकर शुरू में जरूर तारा भावनाओं में बहकर रोती रही, लेकिन थोड़ी देर में वह उठी और पड़ोस की लुहारिन को बताने के बहाने घर भर में एक बार और सुना दिया कि दिन हमेशा एक जैसे नहीं रहते।
इस घर की औरतें हमेशा ही आपस में लड़ती रहतीं, ऐसा तो नहीं था; लेकिन जब से कचहरी से फैसला आया था, तारा अंदर-ही-अंदर ही जल-भुनकर खाक हुई जा रही थी। तब से वह अकसर बीमार रहती और सामने जो भी आता उसके सामने अपना माथा पीटकर खरी-खोटी सुना देती। इस बात को लेकर घर में कई बार हंगामे हुए और वंशीधर के लाख समझाने के बावजूद तारा बाज़ नहीं आई। बेटा ज्यादा समझाता तो वह चौखट पर अपना सर फोड़ने लगती कि जब सर के ऊपर से साया हट गया, कोख निकली औलाद नसीहत देने लगी। ऐसे हादसे इतनी दफा हो चुके थे कि कम-से-कम इस मामले को लेकर वंशीधर अपनी मां से कुछ भी न कहता।
तारा ने अंग्रेज के तोहफे की बात लुहारिन को ऐसे सुनाई कि इस घर के तमाम हिस्सों में खुसर-पुसर शुरू हो गई। उसका वश चलता तो वह बाजार में ढिंढोरची से ऐलान करवा देती।
खबर पाकर पंडित रामपूजन कांदी से चले आए। पूरब की तरफ पाकड़ के साथ उनके बड़े और मंझले बेटों का घर है। वंशीधर को जब उनके आने की खबर हुई, वह सीधे उनके पास पहुंचा और चरण छू लिए। रामपूजन की आंखों से आंसू निकल पड़े थे। वे सुख के तो खैर थे ही, लेकिन उसमें दुख का हिस्सा भी कम नहीं था। ब्रह्मदेव पाठक के वंशज आपस में लड़-झगड़कर इस कदर बिखर गए हैं, रामपूजन के लिए इससे बढ़कर अफसोस क्या होता।

वंशीधर ने अपने कुर्ते से रामपूजन की आंखों की कोरें पोंछ दी थीं। वह समझ रहा था कि रामपूजन के दोनों बेटे महेश और गोपाल इस वक्त यहां मौजूद होते तो उन्हें यह बहुत अच्छा नहीं लगता। उम्र में दोनों ही उससे बड़े हैं और बाहर से खास दुश्मनी भी नहीं दिखाते। लेकिन वंशीधर को पता है, मुकदमे की वजह से रामपूजन को छोड़ उनके परिवार का हर कोई अंदर से बहुत तिलमिलाया हुआ है।
वंशीधर को यह सब अनहोनी लगती। अकसर ही वह सोचा करता और उदास हो जाता। उसकी यह उदासी घरभर में अगर किसी को पता था, तो वह हैं पंडित रामपूजन।
बनगासा के बाजार में कुछ दुकाने थीं। लेकिन ज्यादातर लोग खेती से गुजारा करते। कभी-कभी जब सूखा पड़ जाता, लोग काम की तलाश में बड़ौथ या उबारी भाग जाते। फिर महामारी फैलती और कुछ लोग उसी में खत्म हो जाते। सूखा बहुत कम हुआ तो पांच-सात सालों में एक बार जरूर पड़ता। इस इलाके के पंडे-पुजारियों के तब पौ बारह होते। कहीं-न-कहीं रोज यज्ञ होता और उसके बाद दान-दक्षिणा में लोग अपनी-अपनी श्रद्धा से सीताफल, केले और खरबूजे से लेकर वस्त्र, यहां तक कि चांदी तक चढ़ा डालते। इत्तफाक है कि यहां कंपनी खुलने से सालभर पहले ज़बरदस्त सूखा पड़ा था, जिसमें कितने सारे लोग और जानवर खप गए थे। ऐसे में आसमान में अशर्फियां टपकने की तरह कंपनी खुलने की खबर आई तो लोगों ने यकीन कर लिया, पुरखों का पुण्य आखिर कभी-कभी करिश्मा दिखा ही देता है।
जब कंपनी का काम शुरू हुआ और ठेके में मिले जंगल की कटाई शुरू हुई, बनगासा में जलसा-जैसा होने लगा। बहुत सारे लोगों को कंपनी में काम मिल गया और सुबह से लेकर शाम तक लकड़ी लादे बैलगाड़ियां शहर की तरफ निकलने लगीं।
वंशीधर चूंकि कंपनी का मैनेजर था, उसी की वजह से लोगों को काम मिला था, इस बात को लोग उसका अहसान समझते थे। वह चाहता तो अपने घरवालों को बड़े आराम से नौकरियां दे सकता था। यह बात अगर टॉमस साहब के कानों तक पहुंचती, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। साहब का अपने मैनेजर पर पूरा-पूरा भरोसा था और वह छोटे-मोटे मामलों में दखल-अंदाजी करना पसंद नहीं करते थे। इसके बावजूद वंशीधर ने अपने घरवालों में से किसी को नौकरी पर नहीं रखा। वह समझता था, ऐसा करना सच्चाई के उसूल से डिगना होगा।

कंपनी के काम से वंशीधर जब भी इलाहाबाद गया है, कभी भी खाली हाथ नहीं लौटा है। टॉमस साहब कामकाज के बाद अपने मैनेजर को बिठाकर विलायत की कहानियां सुनाते और चलने से पहले कभी गर्म दुशाला तो कभी घरवाली के लिए चांदी की करधनी थमा देते।
वंशीधर शुरू से ही बहुत संकोची रहा है। ऐसे में बार-बार किसी से तोहफा कबूल करना उसे सुख नहीं देता था। लेकिन वह बखूबी जानता था, गुलामी ही अगर करनी है तो चलेगी वही, जो मालिक का जी चाहेगा। फिरंगी साहब दिलदार जरूर थे, लेकिन अपने मैनेजर के दिल की खबर वह पता नहीं कर पाए। वह शायद इस लड़के को दोस्त भी समझते थे लेकिन वंशीधर ने ऐसी मूर्खता नहीं की। वह जानता था—मालिक और नौकर के बीच का फर्क सात समंदर के बराबर का होता है।
लेकिन इन तमाम बातों से तारा बहुत खुश थी, इतनी खुशी की उसे यकीन आ गया था, ब्रह्मदेव पाठक के कुल का नष्ट गौरव उनके परपोते से ही वापिस आने वाला है। वह अकसर व्रत-उपवास रखती और घर के मंदिर में स्थापित शिवलिंग के सामने माथा टेक घंटा-घंटाभर पड़ी रहती। उसने अपने मन की मुराद को प्रकट किसी से कभी जरूर नहीं किया, लेकिन घरभर में लोग बखूबी समझते थे, इस वक्त अपने बेटे की तरक्की और सेहतमंदी के अलावा उसके दिल में और कोई तमन्ना नहीं है।
वंशीधर ने शुरू से ही मां की भक्ति की है। कई बार उसे तारा के कुछ खयालात पसंद नहीं आए लेकिन इसको लेकर कभी उसने कोई विवाद नहीं खड़ा किया।

वंशीधर नौकरी पर लगा तो तारा की छाती बेटे की इस कामयाबी पर फूल-कर दूनी हो गई। दिल में उमंग की लहरें उठती थीं, फिर आखिर बेटा अंग्रेज की कंपनी का मुलाजिम ठहरा, किसी नाई-धोबी के यहां नहीं। वंशीधर को मां की भावनाओं का पता था इसलिए जब कभी फुर्सत मिलती, वह तारा के साथ बैठता और करीने से एक-एक ताज़ी खबर सुनाता रहता।
हर बात तारा की समझ में नहीं आती। न आए। लेकिन अपने कुल-दीपक पूत के मुंह से सुनना उसे बहुत सुख देता।
वंशीधर जंगल में सांप-बिच्छुओं से निपटने के किस्से से लेकर लकड़ी के बाजार-भाव तक की हर कहानी आहिस्ता-आहिस्ता सुनाता जाता। सुनते-सुनते तारा कभी हैरान होती, कभी परेशान। थोड़ा-बहुत डर भी उसे आए दिन लगता है। आखिर जंगल का क्या भरोसा ? लेकिन अपने डर को अपने ही अंदर उसने हमेशा छिपाए रखा। कम-से-कम वंशीधर के सामने कभी जाहिर नहीं होने दिया। उसे यकीन था, बेटे के लिए किए गए इतने व्रत-उपवास कभी व्यर्थ नहीं जाएँगे। विपत्तियां अगर आईं भी, वे ईश्वर की कृपा से टल जाएंगी।
वंशीधर की दुलहिन कमला कभी-कभी दरवाजे की ओट से सास और पति के बीच बातचीत सुन लेती, लेकिन उसकी समझ में अकसर ही कुछ नहीं आता।

कमला इस घर में बहू बनकर आ जरूर गई, लेकिन उम्र इतनी नहीं थी कि जसोदा की मुराद पूरी कर सकती। दस बरस की दुलहिन अपने पति के संग नहीं, सास की बिस्तर के नीचे सोती थी। वह थोड़ी सयानी हो जाए तो बस, तारा को और कुछ नहीं चाहिए।
शिवनाथ के चल बसने की वजह से तारा की दुनिया जरूर उजड़ गई थी लेकिन जब से वंशीधर नौकरी पर लगा, वह सपने देखने लगी थी। एक अरसे तक उसे सिर्फ यही महसूस होता रहा कि चंद सांसें बाकी हैं, किसी तरह पूरी हो ही जाएंगी। लेकिन अब उसके अंदर जीने की तमन्ना फिर से जाग उठी थी। अब उसे यकीन आने लगा था कि एक दिन वंशीधर को दिल्ली के लाट के यहां से बुलावा जरूर आएगा। और सिर्फ गांव के ही नहीं, दूर-दूर के लोग भी कबूल करेंगे कि ब्रह्मदेव पाठक के कुल का यह चिराग हजारों में ही नहीं लाखों में एक है।
दिल के अंदर खुशी की इतनी उमड़ती बाढ़ हो तो, कभी-कभी जिया नहीं जाता। अचानक दिमाग के अंदर न जाने क्यों आंधी-सी आने लगती और सपना उसी में खो जाता। दिल में खुशी का समंदर उफनने के बाद तारा को हर बार शिवनाथ की लाश याद आई। फिर शुरू में तो वह सिसकियां भरनी शुरू करती लेकिन बाद में फूट-फूटकर रोने लगती।

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