बहुभागीय पुस्तकें >> सम्भवामि युगे युगे - भाग 1 सम्भवामि युगे युगे - भाग 1गुरुदत्त
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"अवतरण" के आगे - महाभारत की कथा...
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भूमिका
यह पुस्तक ‘अवतरण’ की कथा के आगे का अंश है।
‘अवतरण’ में महाभारत की मुख्य कथा का पूर्वांश था। उसका अंत
पाडवों के हस्तिनापुर में आकर अपने ताऊ महाराज धृतराष्ट्र के घर में स्थान
पा जाने पर हुआ था। प्रस्तुत पुस्तक में पांडवों के बारह वर्ष वन में रहकर
तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास के आरम्भ तक की कथा है। महाभारत की शेष कथा को
एक तीसरी पुस्तक में लिखने का विचार है।
‘अवतरण’ में अवतार की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है। इस श्रृंखला की दूसरी पुस्तक ‘सम्भवामि युगे-युगे’ में अवतरण के और उसके कार्य-क्षेत्र और कार्य की सीमाओं पर प्रकाश डालने का यत्न किया गया है। आगामी अर्थात् इसी श्रृंखला की तीसरी कड़ी में अवतार क्या नहीं कर सकते, पर अपने विचार व्यक्त करने का प्रयत्न करूंगा।
महाभारत संस्कृत साहित्य का एक महान् ग्रन्थ है। इसमें पात्रों का चरित्र-चित्रण बहुत ही श्रेष्ठ ढंग से किया गया है। सबके सब पात्र दो श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं। एक वे, जो अपने मन, वचन और कर्म से आस्तिक हैं। इनमें भगवान श्रीकृष्ण, पांडव, कृष्ण द्वैपायन इत्यादि उल्लेखनीय हैं। दूसरे वे पात्र हैं जो मन, वचन और कर्म से नास्तिक हैं। कंस इत्यादि इसी श्रेणी के पात्र हैं। दुर्योधन तथा उसके भाई, कर्ण, शकुनि इत्यादि इसी श्रेणी के पात्र हैं। एक तीसरी श्रेणी के पात्र भी हैं। वे आज के युग के बुद्धिवादी पात्रों के समान हैं। इनमें भीष्म, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य आदि हैं। ये ‘बुद्धिजीवी’ मन ने आस्तिकों का और कभी नासित्कों का समर्थन करते देखे जाते हैं। परन्तु कर्म से इन्होंने कभी भी आस्तिकों का समर्थन नहीं किया। ठीक निर्णयात्मक समय पर ये नास्तिकों की ओर लुढ़क जाते रहे हैं।
महाभारत के पाठक कदाचित् हमारी इस विवेचना को स्वीकार नहीं करेंगे, परन्तु पढ़ने के साथ मनन करने पर वे हमारे कथन को सर्वथा तिरस्कार योग्य भी नहीं मानेंगे।
हम महाभारत को नीतिशास्त्र का एक महान् ग्रन्थ मानते हैं। इसकी कथा विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों में विभिन्न प्रकृति के व्यक्तियों के कार्य करने का वृत्तान्त है। भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वभाव और आचार वालों की मानसिक अवस्था का एक अति सुन्दर चित्रण किया गया है। इन चरित्र चित्रणों का मनन कर, संसार में बार-बार वैसी परिस्थितियों में व्यवहार का निश्चय किया जा सकता है। हिन्दू समाज एक ऐसे महान् ग्रन्थ की निधि रखते हुए भी इससे लाभ नहीं उठा सका। इसमें मुख्य कारण, प्रथम तो अवतार के विषय में मिथ्या धारणा है। अवतार को परमात्मा, जो सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी और सर्वगुण सम्पन्न है, सर्वांश में मान लेना है।
अतः उसकी भूलों और असफलताओं को भी परमात्मा की भूल और असफलता मान लेना, पढ़ने वालों को, कथा से लाभ उठाने में बाधक बनता है। दूसरा कारण है आस्तिकवाद के अनुयायी पात्रों के कर्मों में अन्तर होने पर भी उनको ठीक मान, उसको जीवन का आदर्श मान आचरण करना। यह भी कथा से लाभ उठाने में बाधक बन गया है। एक तीसरा चरण भी है। पूर्ण पुस्तक को मिथ्या कथा का वृत्तान्त मान इसका तिरस्कार करना, इस पुस्तक के पढ़ने और इसके भावार्थ को समझने में महान् बाधा बन गयी है।
अतः महाभारत की बुद्धियुक्त मीमांसा करने के विचार से इन पुस्तकों को पाठकों के समक्ष रखने का विचार किया गया है।
यह स्वाभाविक ही है कि सब लोग लेखक की विवेचना से सहमत न हों, इस पर भी इस पुस्तक को पढ़कर इसके उद्देश्य को समझने की प्ररेणा देने में यह कथा सहायक सिद्ध होगी, ऐसा मान ही इसको लिखा गया है।
पुस्तक का तत्त्व, लेखक के मन में, यह है कि यदि श्रेष्ठ विचारक के लोग समय पर उचित कार्य करने में सफल हो जायें तो पाप पनप नहीं सकता। मानव होने के नाते वे भूल कर जाते हैं और ठीक समय पर ठीक कार्य कर नहीं पाते। इस भूल के कारण ही संसार में पाप को फलने-फूलने का अवसर मिल जाता है।
ठीक समय पर ठीक कार्य करने की बुद्धि मन को काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार—इन विकारों से मुक्त करने से बनती है। ऐसी भूलें युधिष्ठिर, भीष्म, धृतराष्ट्र इत्यादि पात्रों ने अनेक बार की हैं। जब भूल का ज्ञान उनको हुआ तब उन्होंने पश्चात्ताप किया, परन्तु ‘‘पीछे पछताये क्या बने, जब चिड़ियां चुग गयीं खेत।’’
शेष तो यह उपन्यास है। इसमें कहीं-कहीं, कल्पना से काम भी लिया गया है। वह कहानी में रह गये छिद्रों की पूर्ति के लिये ही है।
वर्तमान काल के पात्र तो सर्वथा काल्पनिक ही हैं।
‘अवतरण’ में अवतार की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है। इस श्रृंखला की दूसरी पुस्तक ‘सम्भवामि युगे-युगे’ में अवतरण के और उसके कार्य-क्षेत्र और कार्य की सीमाओं पर प्रकाश डालने का यत्न किया गया है। आगामी अर्थात् इसी श्रृंखला की तीसरी कड़ी में अवतार क्या नहीं कर सकते, पर अपने विचार व्यक्त करने का प्रयत्न करूंगा।
महाभारत संस्कृत साहित्य का एक महान् ग्रन्थ है। इसमें पात्रों का चरित्र-चित्रण बहुत ही श्रेष्ठ ढंग से किया गया है। सबके सब पात्र दो श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं। एक वे, जो अपने मन, वचन और कर्म से आस्तिक हैं। इनमें भगवान श्रीकृष्ण, पांडव, कृष्ण द्वैपायन इत्यादि उल्लेखनीय हैं। दूसरे वे पात्र हैं जो मन, वचन और कर्म से नास्तिक हैं। कंस इत्यादि इसी श्रेणी के पात्र हैं। दुर्योधन तथा उसके भाई, कर्ण, शकुनि इत्यादि इसी श्रेणी के पात्र हैं। एक तीसरी श्रेणी के पात्र भी हैं। वे आज के युग के बुद्धिवादी पात्रों के समान हैं। इनमें भीष्म, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य आदि हैं। ये ‘बुद्धिजीवी’ मन ने आस्तिकों का और कभी नासित्कों का समर्थन करते देखे जाते हैं। परन्तु कर्म से इन्होंने कभी भी आस्तिकों का समर्थन नहीं किया। ठीक निर्णयात्मक समय पर ये नास्तिकों की ओर लुढ़क जाते रहे हैं।
महाभारत के पाठक कदाचित् हमारी इस विवेचना को स्वीकार नहीं करेंगे, परन्तु पढ़ने के साथ मनन करने पर वे हमारे कथन को सर्वथा तिरस्कार योग्य भी नहीं मानेंगे।
हम महाभारत को नीतिशास्त्र का एक महान् ग्रन्थ मानते हैं। इसकी कथा विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों में विभिन्न प्रकृति के व्यक्तियों के कार्य करने का वृत्तान्त है। भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वभाव और आचार वालों की मानसिक अवस्था का एक अति सुन्दर चित्रण किया गया है। इन चरित्र चित्रणों का मनन कर, संसार में बार-बार वैसी परिस्थितियों में व्यवहार का निश्चय किया जा सकता है। हिन्दू समाज एक ऐसे महान् ग्रन्थ की निधि रखते हुए भी इससे लाभ नहीं उठा सका। इसमें मुख्य कारण, प्रथम तो अवतार के विषय में मिथ्या धारणा है। अवतार को परमात्मा, जो सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी और सर्वगुण सम्पन्न है, सर्वांश में मान लेना है।
अतः उसकी भूलों और असफलताओं को भी परमात्मा की भूल और असफलता मान लेना, पढ़ने वालों को, कथा से लाभ उठाने में बाधक बनता है। दूसरा कारण है आस्तिकवाद के अनुयायी पात्रों के कर्मों में अन्तर होने पर भी उनको ठीक मान, उसको जीवन का आदर्श मान आचरण करना। यह भी कथा से लाभ उठाने में बाधक बन गया है। एक तीसरा चरण भी है। पूर्ण पुस्तक को मिथ्या कथा का वृत्तान्त मान इसका तिरस्कार करना, इस पुस्तक के पढ़ने और इसके भावार्थ को समझने में महान् बाधा बन गयी है।
अतः महाभारत की बुद्धियुक्त मीमांसा करने के विचार से इन पुस्तकों को पाठकों के समक्ष रखने का विचार किया गया है।
यह स्वाभाविक ही है कि सब लोग लेखक की विवेचना से सहमत न हों, इस पर भी इस पुस्तक को पढ़कर इसके उद्देश्य को समझने की प्ररेणा देने में यह कथा सहायक सिद्ध होगी, ऐसा मान ही इसको लिखा गया है।
पुस्तक का तत्त्व, लेखक के मन में, यह है कि यदि श्रेष्ठ विचारक के लोग समय पर उचित कार्य करने में सफल हो जायें तो पाप पनप नहीं सकता। मानव होने के नाते वे भूल कर जाते हैं और ठीक समय पर ठीक कार्य कर नहीं पाते। इस भूल के कारण ही संसार में पाप को फलने-फूलने का अवसर मिल जाता है।
ठीक समय पर ठीक कार्य करने की बुद्धि मन को काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार—इन विकारों से मुक्त करने से बनती है। ऐसी भूलें युधिष्ठिर, भीष्म, धृतराष्ट्र इत्यादि पात्रों ने अनेक बार की हैं। जब भूल का ज्ञान उनको हुआ तब उन्होंने पश्चात्ताप किया, परन्तु ‘‘पीछे पछताये क्या बने, जब चिड़ियां चुग गयीं खेत।’’
शेष तो यह उपन्यास है। इसमें कहीं-कहीं, कल्पना से काम भी लिया गया है। वह कहानी में रह गये छिद्रों की पूर्ति के लिये ही है।
वर्तमान काल के पात्र तो सर्वथा काल्पनिक ही हैं।
गुरुदत्त
एक
नरेश बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी का ग्रैजुएट है। यूनिवर्सिटी के साथ हिन्दू
नाम से प्रभावित होकर ही मैंने उसको वहां शिक्षका के लिए भेजा था, परन्तु
जब से वह वहां से लौटा था, मैं उसको ध्यान से देख रहा था कि वहां से
कौन-सी विशेषता लेकर आया है। मुझे उसमें कोई ऐसी बात प्रतीत नहीं हो रही
थी, जिससे मैं उसमें, वर्तमान काल के युवकों से किसी प्रकार का भी भेद,
अन्तर देख सकता।
दिन-रात गाना-बजाना, खेल-कूद, नाटक-सिनेमा चलता था और न पूजा न पाठ, न शास्त्र न धर्म-ग्रन्थ, न नमस्ते न राम-राम, कुछ भी तो नहीं था, जिससे यह कहा जा सकता कि वह किसी भी सरकारी कालिज में पढ़े हुए से भिन्न है।
नरेश को परीक्षा देकर आये एक मास से ऊपर हो चुका था। मैं उसके परीक्षा-फल के घोषित होने की प्रतीक्षा में था। वह किस श्रेणी में उत्तीर्ण होता है, यह जानकर ही उसके भविष्य का कार्यक्रम बन सकता था। आखिर परीक्षा-फल घोषित हुआ। वह फर्स्ट डिवीजन में अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण हुआ। मैं अब उसके भविष्य के जीवन के विषय में विचार करने लगा। परन्तु वह तो पूर्ववत् अपनी दिन-चर्या में लीन था।
प्रातः आठ बजे सो कर उठा था। तब तक मैं अपने चिकित्सालय में चला जाया करता था। मैं वहां से अवकाश पा मध्याह्न डेढ़ बजे आता, तो वह भोजन कर अपने मित्रों से मिलने के लिए निकल गया होता था। रात को नौ बजे मैं पुनः काम से आता, तो वह गहरी नींद में खुर्राटे भर रहा होता था।
एक दिन मैंने, उससे यह परीक्षा-फल घोषित होने के कई दिन पीछे की बात है, उसकी मां से कहा, ‘‘नरेश को कहना, मुझसे मिल तो ले। अब वह क्या करना चाहता है ?’’
‘‘मैंने उससे पूछा था। उसने कहा है कि हमें चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। उसने अपने जीवन का कार्य निश्चित कर रखा है।’’
‘‘क्या जीवन-कार्य निश्चित किया है ?’’
‘‘उसने बताया नहीं। कहता था, मां ! तुम समझ न सकोगी। इस पर भी मैं अपने जीवन में सफल हो जाऊंगा, इसमें संदेह नहीं।’’
मैं इस उत्तर से न तो निश्चिन्त हो सका, न ही उत्साहित। साथ ही उसकी धृष्टता पर क्रुद्ध हो उठा। उसने मां को ना समझ मान लिया था। एक दिन, यह उक्त वार्तालाप के कई दिन पीछे की बात है, वह दोपहर के समय घर पर मिल गया। मुझे हर्ष भी हुआ और रोष भी आया। मैंने कहा, ‘‘नरेश ! अनुभव नहीं हुआ कि तुम बनारस से लौट आए हो। कहां रहते हो दिन-भर ?’’
‘‘पिताजी ! वास्तव में मैं अभी घर पर नहीं आया।’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘मेरा मन किसी विषय में विचार कर रहा है और वह विषय दिल्ली से बाहर के विषय में सम्बन्ध रखता है।’’
‘‘क्या विषय है ? बताओ ! कदाचित् मैं उसमें कुछ सहायता कर सकूं।’’
‘‘पिताजी ! जो कुछ मैं आपके विषय में जानता हूं, उससे आशा नहीं कि आप इसमें कुछ भी सहायता कर सकेंगे।’’
‘‘फिर भी बताओ तो सही। समझ तो सकता हूं।’’
‘‘अच्छा बताता हूं। समझने का यत्न करिये। मैं एक कलाकार, मेरा मतलब है एक महान् कलाकार बनना चाहता हूं। कलाकार तो मैं हूं ही।’’
‘‘किस कला के ज्ञाता हो, जिसमें प्रभुता प्राप्त करना चाहते हो ?’’
‘‘नाट्य-कला में।’’
दिन-रात गाना-बजाना, खेल-कूद, नाटक-सिनेमा चलता था और न पूजा न पाठ, न शास्त्र न धर्म-ग्रन्थ, न नमस्ते न राम-राम, कुछ भी तो नहीं था, जिससे यह कहा जा सकता कि वह किसी भी सरकारी कालिज में पढ़े हुए से भिन्न है।
नरेश को परीक्षा देकर आये एक मास से ऊपर हो चुका था। मैं उसके परीक्षा-फल के घोषित होने की प्रतीक्षा में था। वह किस श्रेणी में उत्तीर्ण होता है, यह जानकर ही उसके भविष्य का कार्यक्रम बन सकता था। आखिर परीक्षा-फल घोषित हुआ। वह फर्स्ट डिवीजन में अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण हुआ। मैं अब उसके भविष्य के जीवन के विषय में विचार करने लगा। परन्तु वह तो पूर्ववत् अपनी दिन-चर्या में लीन था।
प्रातः आठ बजे सो कर उठा था। तब तक मैं अपने चिकित्सालय में चला जाया करता था। मैं वहां से अवकाश पा मध्याह्न डेढ़ बजे आता, तो वह भोजन कर अपने मित्रों से मिलने के लिए निकल गया होता था। रात को नौ बजे मैं पुनः काम से आता, तो वह गहरी नींद में खुर्राटे भर रहा होता था।
एक दिन मैंने, उससे यह परीक्षा-फल घोषित होने के कई दिन पीछे की बात है, उसकी मां से कहा, ‘‘नरेश को कहना, मुझसे मिल तो ले। अब वह क्या करना चाहता है ?’’
‘‘मैंने उससे पूछा था। उसने कहा है कि हमें चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। उसने अपने जीवन का कार्य निश्चित कर रखा है।’’
‘‘क्या जीवन-कार्य निश्चित किया है ?’’
‘‘उसने बताया नहीं। कहता था, मां ! तुम समझ न सकोगी। इस पर भी मैं अपने जीवन में सफल हो जाऊंगा, इसमें संदेह नहीं।’’
मैं इस उत्तर से न तो निश्चिन्त हो सका, न ही उत्साहित। साथ ही उसकी धृष्टता पर क्रुद्ध हो उठा। उसने मां को ना समझ मान लिया था। एक दिन, यह उक्त वार्तालाप के कई दिन पीछे की बात है, वह दोपहर के समय घर पर मिल गया। मुझे हर्ष भी हुआ और रोष भी आया। मैंने कहा, ‘‘नरेश ! अनुभव नहीं हुआ कि तुम बनारस से लौट आए हो। कहां रहते हो दिन-भर ?’’
‘‘पिताजी ! वास्तव में मैं अभी घर पर नहीं आया।’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘मेरा मन किसी विषय में विचार कर रहा है और वह विषय दिल्ली से बाहर के विषय में सम्बन्ध रखता है।’’
‘‘क्या विषय है ? बताओ ! कदाचित् मैं उसमें कुछ सहायता कर सकूं।’’
‘‘पिताजी ! जो कुछ मैं आपके विषय में जानता हूं, उससे आशा नहीं कि आप इसमें कुछ भी सहायता कर सकेंगे।’’
‘‘फिर भी बताओ तो सही। समझ तो सकता हूं।’’
‘‘अच्छा बताता हूं। समझने का यत्न करिये। मैं एक कलाकार, मेरा मतलब है एक महान् कलाकार बनना चाहता हूं। कलाकार तो मैं हूं ही।’’
‘‘किस कला के ज्ञाता हो, जिसमें प्रभुता प्राप्त करना चाहते हो ?’’
‘‘नाट्य-कला में।’’
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