परिवर्तन >> डिप्लोमैट डिप्लोमैटनिमाई भट्टाचार्य
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घर से दफ्तर और दफ्तर से घर–बस इन दोनों के बीच की दूरी नापते-नापते ही बेचारे मध्यवर्गीय व्यक्ति का जीवन समाप्त हो जाता है...
योरोप के सबसे गरीब देश पुर्त्तगाल में एक कानून यह है कि वहाँ की राजधानी लिसबन में हर व्यक्ति के लिये जूता पहनना आवश्यक है। लेकिन जूते के लिए पैसे कहाँ हैं? हजारों आदमी ऐसे हैं, जिनकी जूते खरीदने की सामर्थ्य नहीं है। लेकिन जूते जैसी कोई चीज़ जेब में लिये घूमते-फिरते हैं ऐसे लोग। दूर से पुलिस के सिपाही को देखते ही पहन लेते हैं और सिपाही के नजरों से दूर होते ही फिर उतारकर जेब में रख लेते हैं।
आँखें खोलकर चारों और देखो तो यह सब तुरंत दिखाई दे जाता है, समझ में आ जाता है। टूरिस्टों की तरह केवल बाह्य-दृष्टि से देखना डिप्लोमेट का काम नहीं है। और भी बहुत कुछ देखना पड़ता है, जानना पड़ता है, और ऊपर के अफसरों को बताना पड़ता है। सुबह दस बजे से शाम पाँच बजे तक आफिस में काम करके डिप्टी सेक्रेटरी का दायित्व तो पूरा हो जाता है, लेकिन केनसिंग्टन या फिफ्थ एवेन्यू की कॉकटेल पार्टी में जाने पर छह पेग-आठ पेग ह्विस्की पीने के बाद भी डिप्लोमेट को गोपनीय रूप से खबरें जानने के लिये सतर्क रहना पड़ता है। चाहे कुछ भी कहा जाये पर डिप्लोमेट एक मर्यादा-सम्पन्न व स्वीकृत गुप्तचर के अलावा और कुछ नहीं होता। फ्रेंडशिप, अंडरस्टैडिंग यह सब तो कहने की बातें हैं। क्लोज़ कल्चरल टाइज़–मक्खन लगाकर बातें जानना है, बस। दूसरे देशों का रंग-ढंग समझकर अपने देश के लिये सुविधा उत्पन्न करना अर्थात् दूसरे शब्दों में स्वार्थ-रक्षा ही डिप्लोमेसी का एकमात्र धर्म है। ये सब बातें संसार के समस्त डिप्लोमेट जानते हैं, इंडियन डिप्लोमेट भी जानते हैं।
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