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गलतफहमी

निमाई भट्टाचार्य

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3724
आईएसबीएन :81-288-0618-1

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इस दुनिया का हर इंसान खाना जुटाने, आश्रय, रुपये-पैसे के सपने देखता है। उपन्यास का नायक सैकत भी सुखी जीवन बिताने का सपना देखता है।

Galatphami

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कोलकाता के एक गरीब क्लर्क के घर मे जन्में निमाई भट्टाचार्य का बचपन अत्यंत संघर्षपूर्ण परिस्थितियों के बीच बीता। कॉलेज जीवन के दौरान ही उनके पत्रकारिता जीवन की भी शुरुआत हुई। पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़ने पर उनकी साहित्यिक प्रवृत्ति जागृत हो उठी। जीवन के विभिन्न पहलुओं से रूबरू होते हुए उन्होंने नारी जीवन को करीब से महसूस किया। यही कारण है कि उनके लेखन में नारी के चरित्र व समाज में उनके स्थान का मुख्य रूप से चित्रण हुआ है। श्री निमाई भट्टाचार्य आज बंगला के प्रतिष्ठित व यशस्वी उपन्यासकार हैं। उनके प्रथम उपन्यास ‘राजधानीर पथ्ये’ का मुखबंध स्वयं पूर्व राष्ट्रपति ‘डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन’ ने लिखा था। उनकी मूल बांग्ला रचनाओं ‘ राग असावरी’, ‘देवर भाभी’, ‘अठारह वर्ष की लड़की’, ‘सोनागाछी की चम्पा’, ‘अवैध रिश्ते’, ‘एक नर्स की डायरी’ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। इसी श्रृंखला की नयी कड़ी है ‘गलतफहमी’।

इस दुनिया का हर इंसान खाना जुटाने, आश्रय, रुपये-पैसे के सपने देखता है। कोई इंसान सपना देखता है अपने लोगों के सान्निध्य और ऊष्ण स्पर्श का। उपन्यास का नायक सैकत भी सुखी जीवन बिताने का सपना देखता है। पढ़िए, नायक का प्रेम, विछोह और मिलन की अनुपम गाथा।

उसके बाद गंगा-यमुना नदी होकर पता नहीं कितना पानी बह गया। हम दोनों एक साथ हंसे हैं, एक साथ सपने देखे हैं। कभी सोचा भी नहीं था कि हमारे सारे सपने आंधी में टूटकर चूर-चूर हो जायेंगे। अच्छा, इंसान की जिंदगी में क्या हेमंत-बसंत ऋतु हमेशा के लिए स्थायी नहीं हो सकतीं ? इंसानों को दुःख ना पहुंचाकर क्या विधाता पुरुष अपना आधिपत्य प्रकट नहीं कर पाते?

गलतफहमी
1


इस दुनिया में रहते हुए हर एक इंसान सपना देखता है। कोई सपना देखता है दो टाइम का खाना जुटाने का और थोड़े-से आश्रय का। कोई सपना देखता है रुपये-पैसे का तो कोई इंसान सपना देखता है लोगों के सान्निध्य का, अपने लोगों के ऊष्ण स्पर्श का। मैं भी सपना देखता हूं सुखी जीवन बिताने का।
उसके बाद ?
अचानक एक दिन सब कुछ उलट-पलट हो गया। मेरे सपनों का महल ताश के पत्तों की तरह बिखर गया। मेरी दुनिया अंधेरों में डूब गई।
एक बार तो मेरे दिल में आया कि, मैं खुदकुशी कर लूं। लेकिन, अगले ही पल मैंने सोचा नहीं-नहीं। इतनी हिम्मत, इतनी ताकत मुझमें नहीं है। खुदकुशी करना मेरे बस की बात नहीं है। इसके अलावा मैं अगर खुदकुशी कर भी लूं, तो मां को वह सदमा बरदाश्त नहीं होगा। नहीं-नहीं...ये नामुमकिन है।

फिर मन में आया कि, मैं भाग जाऊं। हरिद्धार, ऋषिकेश, लक्ष्मण झूला या कुमायूं पहाड़ियों के आस-पास कहीं भाग जाऊं।
नहीं-नहीं...उधर बहुत सारे बंगाली लोग जाते हैं। कब किसके साथ मुलाकात हो जाये....कोई भरोसा नहीं है। जिन लोगों के कारण मैं कलकत्ता से भागना चाहता हूं, अगर उन लोगों से ही मेरी मुलाकात हो जाये, नैनीताल झील के आस-पास या रानीखेत में पाइन के पेड़ों की धूप-छांव में ?
नहीं-नहीं...इससे बेहतर होगा, अगर मैं मदुरै, रामेश्वरम या कन्याकुमारी चला जाऊं।
फिर मन में आया, रोगियों को अगर उनके कष्ट से अगर मैं निजात दिला सकूं, तो मैं अपने सारे दुःखों को भूल पाऊंगा। शांति अगर न भी मिले, फिर भी थोड़ा-सा चैन तो मिलेगा।
यह सब सोचते-सोचते ही एक दिन मैंने कोल इंडिया में अर्जी भेज दी। लगभग तीन महीने बाद इंटरव्यू भी हो गया। इंटरव्यू के आखिर में इंटरव्यू बोर्ड के चेयरमैन ने दबी हुई हंसी हंसकर कहा-‘पश्चिम बंगाल के बाहर जाने में आपको कोई एतराज तो नहीं है न ?’

मैंने भी मुसकराकर उनके सवाल का जवाब दिया-‘आप लोग मुझे यहां से जितनी दूर भेजेंगे, मुझे उतनी ही ज्यादा खुशी होगी।’
‘गुड...वैरी गुड।’
इंटरव्यू के लगभग महीने भर के बाद नियुक्ति पत्र भी आ गया। मैंने लिफाफा खोलकर देखा, मुझे उत्तरी-पूर्वी कोल फील्ड्स के मार्घेरिटा अस्पताल में भेजा गया है।
मार्घेरिटा ? यह जगह कहां पर है ? असम के गुवाहाटी, डिब्रूगढ़, दिगबोई, शिवसागर और काजीरंगा का नाम तो मैं दूसरे लोगों के मुंह से बहुत बार सुन चुका हूं...लेकिन भारतवर्ष में मार्घेरिटा नाम की कोई भी जगह है...यह मैं पहली बार सुन रहा हूं।
हमारे इस हॉस्टल में विमान भैया के कमरे की दीवार पर भारत का एक बड़ा-सा नक्शा टंगा हुआ है। बहुत कोशिश करने के बावजूद उस नक्से में मैं मार्घेरिटा नाम का कोई जगह ढूंढ़ नहीं पाया।
मन-ही-मन सोचा, जरूर वहां पर लोगबाग ज्यादा नहीं रहते होंगे। इसलिए, भारतवर्ष के इतने बड़े नक्शे में भी मार्घेरिटा नाम की जगह नहीं मिली।

जगह चाहे न भी मिले, फिर भी मैं वहां पर जा रहा हूं। मैं इसी तरह किसी अंजान जगह पर ही जाना चाहता था।
कोल इंडिया के दफ्तर में जाकर पूछताछ करने पर मुझे यह पता चला कि, मार्घेरिटा तिनसुकिया जिले में अवस्थित है। कोलकाता से हवाई जहाज में डिब्रूगढ़....फिर वहां से गाड़ी में 168 किलोमीटर सफर करने पर मार्घेरिटा आता है। कोलकाता से हर रोज डिब्रूगढ़ के लिए हवाई जहाज नहीं जाता है। इसलिए अगर मुझे एक तारीख को ज्वाइन करना है, तो मुझे दो दिन पहले ही वहां पहुंचना पड़ेगा।

29 तारीख की टिकट लेकर मैंने मार्घेरिटा पर उत्तरी-पूर्वी कोल फील्डस् के जनरल मैनेजर और चीफ मेडिकल अफसर को तार कर दिया-रीचिंग डिब्रूगढ़ ऑन ट्वेन्टी नाइन्थ...इंडियन एयर लाइंस फ्लाइट नंबर 707।
रवाना होने से पहले मां और भैया-भाभी के साथ कुछ दिन बिताने के लिए मैं अगले ही दिन सुबह-सुबह स्टील एक्सप्रेस से घाटशिला के लिए रवाना हो गया।

अखबार खत्म होते-होते गाड़ी खडगपुर स्टेशन पर आ गई। उसके बाद चाय और एक सिगरेट खत्म करते-करते झाड़ग्राम भी आ गया। कुछ संथाली बूढ़े लोग अपने बच्चों, तरह-तरह के सामान और चावल का बोरा लेकर मेरी बोगी में चढ़ते ही कोलकाता के बाबू लोगों जितने खफा हो उठा, मैं ठीक उतना ही खुश हो उठा। अचानक मुझे ऐसा लगा कि यह लोग शायद फूलमणि के रिश्तेदार होंगे। इन लोगों को देखकर ही मैं यह समझ गया था कि, मेरे शैशव-किशोरवय, यहां तक कि पहली जवानी की बहुत सारी यादें लेकर मौभंडार-मोसाबनी अब ज्यादा दूर नहीं है।

मैं बचपन से ही संथाल लोगों को देखता आ रहा हूं। हमारे मौभंडार-मोसबानी के रास्तों पर, बाजार में मैंने संथाल लोगों को देखा है। मौसाबनी, सुरदा, पत्थर गोडा, केन्दादीह को अगर छोड़ भी दिया जाए, तो मौभंडार के दफ्तर और कारखानों में भी बहुत सारे संथाल लोग काम करते हैं, दिन में बहुत बार मैं इन लोगों से मिला हूं लेकिन संथाल लोगों के प्रति मेरी पसंद के पीछे पहला कारण है महादेव चाचा और फूलमणि।
मेरे पिता जी के मौभंडार के दफ्तर में लेखा विभाग में नौकरी पाने के साल भर बाद ही महादेव चाचा भी उसी विभाग में चपरासी के पद पर आये थे खुद जार्डिनसन साहब की सिफारिश पर। तब, मेरी बात तो दूसरी है....मेरे बड़े भाई का भी जन्म नहीं हुआ था। बड़ा होने के बाद मां के मुंह से महादेव चाचा की नौकरी पाने की कहानी सुनी थी।

उस समय यह सब अंग्रेज लोग तांबे की खानों और कारखानों के मालिक थे। देश आजाद होने के बाद भी यह कंपनी बहुत दिनों तक अंग्रेज लोगों के हाथ में थी। उस समय जार्डिनसन साहब ही यहां के सबकुछ थे। हर रोज सुबह छह बजे से साढ़े सात बजे तक गोल्फ क्लब में गोल्फ खेलकर बंगले में वापस आकर नाश्ता करके घड़ी देखकर आठ बजे दफ्तर। शाम को जार्डिनसन साहब अपनी पत्नी के साथ पूरे इलाके का पैदल चलकर मुआयाना करते थे। कहीं भी थोड़ा-सा कूड़ा या पेड़ की टूटी हुई शाखा मिलने पर वह हो-हल्ला मचा देते थे।
मेरी मां हंसते-हंसते कहती थी, उस समय उन्हीं दो-तीन अंग्रेज साहबों के डर से ही इंजीनियर व ओवरसियर लोग सच में पूरे मौभंडार को साफ-सुथरा रखते थे।

जो भी हो, हर रविवार की तरह उस रविवार को भी जार्डिनसन साहब अपनी पत्नी को साथ लेकर गोल्फ खेलने गये थे। रविवार होने के कारण मौभंडार-मोसाबनी के कुछ अफसर लोग भी गोल्फ खेलने आए थे। लेकिन, मिसेज जार्डिनसन को छोड़कर और कोई महिला उस दिन गोल्प खेलने नहीं आयी थी।
साहब लोगों के गोल्फ खेल कर बियर पीकर क्लब से विदा लेने के बाद ठेकेदार के हुकूम पर दस-बारह संथाल लड़कों ने घास काटना, मैदान साफ करना शुरू कर दिया। उन दस-बारह संथाल लड़कों में से एक थे महादेव चाचा।
घास काटते-काटते ही महादेव को अचानक एक छोटी-सी सोने की घड़ी जमीन पर पड़ी हुई मिली। घड़ी के साथ सोने का पट्टा भी था। उसने पल भर के लिए सोचा-नहीं-नहीं...मैं यह घड़ी ठेकेदार को नहीं दूंगा। वह साला एक नंबर का हरामी है। साला जरूर घड़ी बेच डालेगा।

घड़ी हाथ में लेकर महादेव ने सोचा-मैंने हर समय साहब के हाथ में बड़े साइज की घड़ी देखी है...इसके अलावा मैंने साहब के हाथ में कभी भी सोने के पट्टेवाली घड़ी नहीं देखी। तो क्या यह घड़ी बड़े साहब की मेमसाहब की है ?
घास काटने के बाद ठेकेदार से एक 1 रुपया 53 पैसा मेहनताना मिलने के बाद महादेव सीधा पहुंच गया साहब के बंगले पर। जार्डिनसन दंपत्ति बॉलकनी में बैठकर चाय पी रहे थे। महादेव को देखकर जार्डिनसन साहब ने पूछा-क्या बात है?
महादेव ने मुंह से कुछ न कहकर सीधा आगे बढ़कर घड़ी उनके हाथ में दे दी।
जार्डिनसन साहब घड़ी हाथ में लेकर चिल्ला उठे-‘डार्लिंग, ही हैज ब्रोट योर मिसिंग वाच।’
‘रियली ?’
मेमसाहब ने लगभग कूदकर घड़ी अपने हाथ में लेकर पूछा-‘यह घड़ी तुमको कहां से मिली ? रास्ते पर ?’
महादेव ने सिर्फ इतना ही कहा-‘क्लब...क्लब।’

मेमसाहब ने अपने दोनों हाथ आसमान की तरफ उठाकर कहा-‘ओ गॉर्ड।’ मैं इसे क्लब में छोड़कर आई थी ? मैंने तो यह सोचा था कि, शायद रास्ते में घड़ी मेरे हाथ से गिर गई होगी।’
मिस्टर जार्डिनसन ने हंसते हुए अपनी पत्नी से कहा-‘देखो, देखो...यहां के संथाल लोग कितने ईमानदार हैं। डेढ़ सौ पाऊंड कीमत की घड़ी मिलने के बावजूद यह लोग वापस कर देते हैं।’
जार्डिनसन साहब ने इस बार महादेव से पूछा-‘क्या तुम हमारी खान में या फैक्ट्री में काम करते हो ?’
‘नहीं।’
‘क्या तुम खेती-बाड़ी करते हो ?’
‘नहीं, साहब ! हमारा कोई खेत नहीं है।’
‘तो तुम क्लब किसलिए गए थे ?’
‘ठेकेदार के हुकुम पर घास काटने के लिए गया था।’
‘पूरे दिन घास काटकर तुम्हें कितना मिलता है ?’
‘1 रुपया 53 पैसे।’
जार्डिनसन साहब ने पलभर के लिए रुककर महादेव से पूछा-‘तुम नौकरी करोगे।’
‘हां, साहब....करूंगा।’
बस...अगले ही दिन महादेव को नौकरी मिल गई।

यह सब बातें बहुत पुरानी हैं। मुझे अभी भी याद है, दफ्तर की छुट्टी होने के बाद पिताजी से गप्पे मारते हुए महादेव चाचा भी हमारे क्वार्टर पर आते थे। पिताजी अपने कमरे में चले जाते थे और महादेव चाचा रसोई के दरवाजे पर बैठ जाते थे। पिता जी को चाय-नाश्ता परोशने के बाद मां महादेव चाचा को भी चाय देती थी। चाय पीने के बाद महादेव चाचा मां से पूछते थे-‘मांजी। बाजार से कुछ लाना है क्या ?’
‘नहीं, आज कुछ नहीं लाना है...लेकिन कल या परसों गेहूं पिसवाकर लाना पड़ेगा।’
‘हां, हा,...जरूर पिसवाकर ला देंगे।’
थोड़ी देर चुप रहने के बाद महादेव चाचा ने बहुत संकोच के साथ कहा-‘मां जी। पांच रुपये चाहिए।’
मां ने हंसते हुए कहा-‘तुम्हारे रुपये तुम लोगे, इसमें इतना संकोच करने को क्या है ?’
मां ने कमरे से रुपये लाकर महादेव चाचा के हाथ में देकर कहा-‘तुम क्या अभी बाजार जाओगे ?’
महादेव चाचा ने शर्म से भरी हुई हंसी हंसते हुए कहा-‘नहीं, मां जी...बाजार नहीं जाऊंगा। सर्कस के टिकट खरीदूंगा।’
उसने पलभर के लिए रुक कर कहा-‘घाटशिला के मैदान पर सर्कस चल रहा है। हमारे पड़ोस में से बहुत से लोग देखकर आए हैं। इसीलिए...।’

मां ने उसकी बातों को बीच में ही काटकर कहा-‘इसीलिए तुम अपनी बीवी और बेटी को साथ लेकर सर्कस देखने जाओगे।’
‘हां, मां जी।’
‘हां, हां...जाओ। उन लोगों का भी दिल बहल जायेगा।’
मेरे बड़े भइया कोलकाता में नाना, नानी और मामाओं के पास रहकर पढ़ाई करते थे। सिर्फ दुर्गा पूजा और गर्मियों की छुट्टियों में हमारे पास आते थे। इसीलिए, महादेव चाचा के साथ मेरा ही लगाव ज्यादा था। मैं महादेव चाचा के साथ सुवर्णरेखा नदी में नहाया हूं, रणकिनी के मंदिर में गया हूं। शाम को मोहना में सूर्यास्त देखा है। आस-पास की और भी कई चीजों को महादेव चाचा ने मुझे दिखाया है। बींदमेला और इन्द्र त्योहार दिखाने ले जाने पर हर बार महादेव चाचा ने मुझे और फूलमणि को गर्मा-गर्म जलेबी खिलाते थे।

दिन इसी तरह गुजर रहे थे। एक दिन बारिश के मौसम में जहरीले सांप के काटने से अचानक ही महादेव चाचा की बीवी की मौत हो गई। हफ्ते भर बाद महादेव चाचा को देखकर मुझे ऐसा लगा कि, इस हफ्तेभर में महादेव चाचा की उम्र काफी बढ़ गई है।
मुझे अच्छी तरह याद है, तब मैं जमशेदपुर के लोयोला स्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ता था। एक दिन लगभग दोपहर तीन बजे स्कूल से जब मैं घर वापस आया, दरवाजा फूलमणि ने खोला। मैंने हैरान होकर उससे पूछा-‘तू कब आयी?’
वह मेरे सवाल का कोई जवाब न देकर भागकर मां के पास पहुंच गई।
मां ने कहा-‘महादेव का छोटा भाई आज अपनी बीवी को साथ लेकर चांईबासा चला गया। फूलमणि पूरा दिन अकेली कैसे रहेगी...इसीलिए।’

मां ने पलभर रुकने के बाद फिर से कहा-‘महादेव हर रोज दफ्तर जाते समय फूलमणि को मेरे पास छोड़ कर जायेगा, फिर शाम को घर जाते समय अपने साथ ले जायेगा।’
ओह ! समझा।
फूलमणि उम्र में मुझसे साल भर बड़ी थी, लेकिन महादेव चाचा के साथ-साथ हम दोनों इधर-उधर घूमने जाते थे...इसीलिए हम दोनों के बीच एक दोस्ती का रिश्ता पनप उठा था। इसीलिए, स्कूल से वापस आने के बाद फूलमणि के साथ खेल पाऊंगा, गप्पे मार सकूंगा....यह सब सोचकर मुझे अच्छा ही लगा। दूसरी तरफ फूलमणि भी खुश थी, क्योंकि उसे पूरे दिन घर पर अकेली नहीं रहना पड़ेगा।
बारह-चौदह साल की बंगाली लड़कियां पढ़ाई करने पर भी घर का कोई काम-काज नहीं करतीं...घर का काम-काज उन सब लड़कियों से होता भी नहीं। लेकिन, संथाल लड़कियां ठीक इसकी उल्टी हैं। फूलमणि सिर्फ तीसरी-चौथी कक्षा तक पढ़ने के बावजूद अभी से ही घर के सभी काम-काज सीख गई है। इस उम्र में वह जितनी मेहनत करती है, न देखने पर किसी को यकीन नहीं होगा। पूरे दिन में वह एक मिनट के लिए भी आराम नहीं करती थी।
एक दिन स्कूल से घर आकर मैं जूते उतार रहा था। अचानक हंसते-हंसते फूलमणि भागकर आयी और मुझसे पूछा-‘छोटे दादा बाबू, होतो भागी किसे कहते हैं ?’

मेरे हैरान होकर उसकी तरफ देखते ही फूलमणि ने हंसते हुए कहा-‘अभी-अभी मां जी ने मुझसे कहा-‘होतो भागी तेरे कारण मुझे जरूर गठिया या बाय हो जायेगी।’
ठीक उसी वक्त मां ने आकर फूलमणि के ठीक बगल में खड़ी होकर हंसते हुए कहा-‘मैंने इसे कहा था कि, तू अगर मेरे सभी काम कर देगी, तो मुझे गठिया या बाय हो जायेगी।’
मैंने अपने कमरे की तरफ आगे बढ़ते हुए एक बार फूलमणि को देखकर गंभीर स्वर में कहा-‘इसका मतलब यह हुआ कि, मां ने तुझे बहुत ही खराब कहा है।’
‘छोटे दादा, झूठ मत बोलो।’
फूलमणि पल भर के लिए रुकती है। फिर उसने कहा-‘मां जी कभी भी मुझे खराब नहीं कहती हैं। मांजी मुझसे बहुत प्यार करती हैं।’
मैंने कमरे के अन्दर से ही कहा-‘मां तुझसे प्यार करती है ना हाथी...।’
कमरे के अंदर ही मेरे कानों में आवाज आती है, फूलमणि मां से पूछ रही है-‘मां जी। प्यार करती है ना हाथी...इसका क्या मतलब?’
‘उसकी बातों पर तू ध्यान मत दे।’

शनिवार को दफ्तर में हाफ डे होता है....रविवार को छुट्टी रहती है। शनिवार को दोपहर दो बजे ही महादेव चाचा फूलमणि को साथ लेकर घर चले जाते थे...फिर सोमवार सुबह दफ्तर जाते समय फूलमणि को हमारे पास छोड़ जाते थे।
एक रविवार को मां ने मुझे और पिता जी को खाना परोसते हुए अचानक कहा-‘फूलमणि के न रहने से रविवार के दिन घर बहुत सूना-सूना लगता है।’
पिताजी ने कहा-‘हां तुमने ठीक ही कहा है। फूलमणि के रहने से तुम्हारा दिन भी अच्छी तरह से गुजर जाता है।’
कभी-कभी महादेव चाचा शनिवार और रविवार और कभी-कभी दो-तीन दिन की छुट्टी लेकर फूलमणि को साथ लेकर चाईबासा जाते हैं...तब मुझे भी कुछ अच्छा नहीं लगता। अपने चारों तरफ मैं एक सूनापन महसूस करता हूँ।
इसी तरह दो साल गुजर गए। अचानक एक दिन मैंने ध्यान दिया कि, फूलमणि बड़ी हो रही है। पहले-पहल उसका पूरा बदन जवानी की लावण्य से भर गया। उसके चेहरे पर एक अंजान खुशी का भाव मुझे देखने को मिला। कभी-कभी उसकी नजरों में रहस्य का आभास भी मिलता है...देखने को मिलती है मादकता की मूक भाषा।

तब मेरी उम्र कितनी थी ? शायद सोलह...लेकिन फिर भी फूलमणि को अपने सान्निध्य में पाकर मुझे एक अंजान खुशी महसूस होती थी। कभी-कभी मैं एकटक नजरों से उसकी तरफ देखता रहता हूं। फूलमणि भी दबी हुई हंसी हंसते हुए मेरी तरफ देखती रहती है। उसके बाद वह अचानक पूछती है-‘इस तरह क्या देख रहे हो ?’
‘तुझे देख रहा हूं।’
‘मुझे इस तरह देखने में क्या है ? तुम क्या मुझे आज पहली बार देख रहे हो ?’
‘देख रहा हूँ, तू दिखने में कितनी ही सुंदर हो चुकी है।’
‘झूठ मत बोलो, छोटे दादा बाबू।’
मैंने उसके हाथ के ऊपर अपना हाथ रख कर कहा-‘मैं सच कह रहा हूं, फूलमणि...तू दिन-पर-दिन बहुत ही सुंदर होती जा रही है।’

उसने अपना हाथ खींचकर कहा-‘देखो...तुम भी अब कोई बच्चे नहीं रहे। अब तुम भी देखने में अच्छे लगते हो।’
इसके बाद अगले सोमवार को ही महादेव चाचा ने आकर मां से कहा-‘मां जी फूलमणि की शादी तय हो गयी।’
ठीक एक महीने बाद ही फूलमणि अपने पति के घर चाकूलिया की तरफ एक गांव में चली गई।
कभी-कभी मैं अपने मन से ही पूछता हूं-‘अच्छा...फूलमणि क्या मेरा पहला प्यार है ? या सिर्फ उसका सान्निध्य मुझे अच्छा लगता है...और कुछ नहीं।’
नहीं, इस सवाल का जवाब मुझे नहीं मिला। लेकिन, मुझे इतना पता है कि, जब-जब मैं अपनी जिंदगी के पीछे छोड़ आए दिनों के बारे में सोचता हूं, तब-तब फूलमणि का सुंदर-हंसमुख-उज्ज्वल चेहरा मेरी आंखों के सामने नाच उठता है। मैं उसे भूला नहीं हूं और न ही कभी भूल पाऊंगा। फूलमणि भी मुझे न तो भूल पाई है और ना कभी भुला पायेगी। उसके कुछ-कुछ पागलपन के बारे में सोचकर आज भी मुझे हंसी आती है।

मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने के लगभग तीन महीने बाद मैं मौभंडार गया। बड़े भईया से खबर पाकर महादेव चाचा मुझसे मिलने आए। मुझे अपने सीने से लगाकर रोते-रोते महादेव चाचा ने कहा-‘आज अगर बाबू जिंदा होते, तो कितने खुश होते।’
उसके बाद मुझे प्यार करते हुए महादेव चाचा ने कहा-‘तुम डॉक्टर बनने जा रहे हो। यह सोचकर ही मुझे कितनी खुशी मिलती है, मैं तुम्हें कैसे बताऊँ।’
जो भी हो, पता नहीं किससे खबर मिली...लेकिन फूलमणि अपने बच्चों को लेकर वहां आ गई।
मेरी तरफ देखकर उसने हंसते हुए कहा-‘छोटे दादा बाबू कहकर बुलाऊं या डॉक्टर साहब कहना पड़ेगा ?’
छोटे-मोटे हंसी-मजाक के बाद फूलमणि ने अचानक गंभीर होकर कहा है-‘छोटे दादा बाबू। जरा मुझे और मेरे बेटे को देखना।’
‘क्यों तुझे और तेरे बेटे को क्या हो गया है ?’
‘मेरी खांसी अच्छी होने का नाम ही नहीं लेती।’

उसने पलभर रुककर कहा-‘अच्छा छोटे दादा बाबू। जरा देखना तो, मेरा बच्चा दिन-पर-दिन दुबला क्यों होता जा रहा है ?’
‘तूने चाकूलिया में किसी डॉक्टर को नहीं दिखाया ?’
फूलमणि ने सिर हिलाकर कहा-‘नहीं-नहीं, मैं अपने बच्चे को लेकर उन सब डॉक्टर के पास नहीं जाऊंगी जब तुम डॉक्टर बन गए हो, तो मैं उन लोगों के पास क्यों जाऊंगी ?’
उसकी बातों को सुनकर मैं हंस पड़ा। थोड़ी देर बाद अपने ऊपर नियंत्रण करके मैंने कहा-‘मैं अभी डॉक्टर नहीं बना हूं। आज से करीब पांच साल बाद मैं डॉक्टर बनूंगा।’
फूलमणि ने अविश्वास भरी आवाज में कहा-‘इतने दिन हो गये, तुम अभी भी डॉक्टर नहीं बन पाए हो...यह कैसे हो सकता है ?’
‘मैं सच कह रहा हूं, मैं अभी भी डॉक्टर नहीं बना हूं। अगर मैं डॉक्टर बन जाता, तो तेरा और तेरे बच्चे का इलाज मैं जरूर करता।’
नहीं, उसने फिर भी मेरी बातों पर विश्वास नहीं किया। आखिर में, जब मां ने उसे समझाया, तब जाकर उसने सही रूप पर मान लिया कि, मेरे डॉक्टर बनने में अभी भी कुछ साल बाकी हैं।

लेकिन, थर्ड इअर में पढ़ने के समय से ही फूलमणि तथा उसके बच्चे का इलाज भी मुझे ही करना पड़ता था। इलाज करने के सिवाए और कोई चारा भी नहीं था।
एक बार तो उसकी बातों को सुनकर मैं हैरान हो उठा था।
मिट्टी से बने घर में जमीन पर लेटने के कारण अक्सर ही फूलमणि को ठंड लग जाती थी...उसके सीने में बलगम जम जाता था। एक बार देखा, उसके सीने में काफी बलगम जमा हुआ है। इसीलिए स्टेथोस्कोप लगाकर अच्छी तरह से सीना और पीठ की परीक्षा करते-करते ही मैंने कहा-’सीने में इतनी बलगम जम चुकी है...फिर तूने किसी डॉक्टर के पास दिखाया क्यों नहीं ?’
उसने तुरंत ही कहा-‘दूसरे डॉक्टर को मैं अपने सीने पर क्यों हाथ लगाने दूं ? मुझे क्या शर्म नहीं आती ?’
उसकी बातें सुनकर मैंने हैरान होकर उसकी तरफ देखा।
‘इस तरह क्यों देख रहे हो ?’
‘अच्छा...मैं तेरी सीना-पीठ परीक्षा कर रहा हूं, इसमें तुझे क्या शर्म नहीं आ रही है ?’
‘तुमसे कैसी शर्म ? तुम्हें तो मैं बचपन से ही देखती आ रही हूं।’
फूलमणि मेरी तरफ देखकर दबी हुई हंसी हंसकर कहा-‘तुम्हें छोड़कर और किसी डॉक्टर को अपने शरीर पर हाथ नहीं लगाने दूंगी...इसी कारण मैं किसी डॉक्टर के पास नहीं जाती हूं।’
महादेव चाचा और फूलमणि की इन सब बातों...इन सब यादों में मैं खोया हुआ था, इसी बीच स्टील एक्सप्रेस घाटशिला स्टेशन पर आ रुकी।      

 

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