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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7535
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...


वे अपना धूआंधार भाषण जारी करते हुए बोलते चले गये-जो भी हो आसामी के शरीर में खून-मसंय है। तभी उस हत्याकांड के पश्चात वह खतरनाक व्यक्ति के चंगुल में फंस गया।
आप सब सुनिये-उसी बीमारी के कारण एक और असहाय नारी की मृत्यु-पथ प्रशस्त्र हुआ। कुछ महीने नर्सिंग होम में रहने के बाद घर लौटे तो साथ में एक खुबसूरत-तरुणी नर्स को भी लेते आये। उसे सेवा के लिए रख दिया।
यहां भी पैसा ही जीत गया। पैसा है तो क्यों नहीं रोज पचास रुपये देकर नर्स रखे? और अपनी पुरानी मोहिनी शक्ति का प्रयोग कर इस कमजोर शरीर के साथ इस ईसाई लड़की का पाणिग्रहण किया। और मित्रों को भी आमन्त्रित किया। उस शादी में बेशर्मी की तो सीमा ही नहीं थी।
मैंने जैसे कोई कहानी सुनी; और एक अवास्त कल्पना मेरे अन्दर आई-पृथ्वी के एक ओर जब सूर्य का उजाला और दूसरी ओर अंधेरा। या जब एक तरफ की पृथ्वी सोती है तो दूसरी ओर जागती है।
पता नहीं यह कल्पना इस वक्त क्यों? इस मामले का इस भौगोलिक तथ्य से तो कोई सम्बन्ध नहीं।

मैं अनमना हो गया, तब तक वकील साहब ने अपनी तूलिका से एक ओर का चित्र रंग-रोगन से पूर्ण कर डाला।
फिर तो परिकल्पना उन्होंने भी करनी चालू कर दी।

इस तरुणी स्त्री की जितनी उम्र थी उतनी तो अतनू बोस की अगर समय पर बेटी जन्म लेती तो उसकी उतनी ही उम्र होती। उस पुत्री समान पत्नी के सेवा स्वरूप उनको जीवन दान मिला-उसी की हत्या? इस महाशय की लीला अपरम्पार है।
अब इन्होंने कौशल का सहारा ही नहीं लिया कारण बीमारी ने उन्हें उसके लायक ही नहीं रखा था। तभी गला दबाकर खत्म करके शान्त हुए। अब कहें महामान्य जूरी, इस पापी आसामी को चरमतम सजा मिलनी चाहिए या नहीं?
मेरी राय में तो इस पापी को चार-बार फांसी देनी चाहिए।
वकील चुप हो गये।

हँसी की फौवारा छूट गया-फिर धिक्कार-यह जैसे रूपकथा की तरह एक जानवर की कहानी है। नहीं तो इस युग-आधुनिक युग में एक आदमी पांच बार शादी कर सकता है? और बिना किसी प्रमाण रखे हत्या करता जाता है।
वह भी मस्तिष्क सुस्त तथा ठीक रख कर स्वच्छन्द मति से।
फिर भी मुझे इस बात पर आश्चर्य हो रहा था किसी ने बेबी का प्रसंग नहीं उठाया। शायद भूल गये, जानते ही ना थे या जरूरत नहीं समझी।
यही ईश्वर की मेरे ऊपर अपार करुणा थी।
बेबी के प्रसंग के छिड़ने की आशंका ने मुझे भयभीत करके रखा हुआ था। मैं हर पल इसी बात से गले में जैसे कुछ फांस जैसा अटका महसूस कर रहा था। अगर बेबी की बात कोर्ट में छिड़ जाती तो मैं स्थिर ही नहीं रह सकता था। मेरा फैसला हो गया।
मेरा फैसला तो साफ-उजला जैसा देवी दुर्गा के मुख का रंग या यों भी कह सकते हैं दुर्गा देवी का रंग जैसा होता है वैसा ही मेरा फैसला भी हुआ-एक ही तरह में विचार। जूरी इसके बाद अपना फैसला सुनायेगी तभी मेरी जबानबन्दी ली जा रही है-मैं अतनू बोस बोलता चला जा रहा हूं आप टेप कर रहे हैं। आधुनिक विज्ञान की वजह से यह सम्भव हो पाया।
सुविधायें विज्ञान ने और भी दी हैं। हत्या और हत्या को गोपनीय बनाने की भूल करके मैंने कावेरी नाम की बुद्धू लड़की को मारते वक्त मादिम, अकृत्रिम गुहायुग वाला नुस्खा अपना कर अपना मामला मिट्टी में मिला दिया।

नहीं तो किसी आधुनिक अस्त्र का सहारा लेना-यंत्र, दवाई तो शायद मुझे धर्माधिकरण के दरबार में हाजिर ना देना पड़ता। मैंने अपने बचाव का समर्थन नहीं किया। फिर भी एक अजीब बात हुई थी। पाइन साहब ने मुझे जमानत देकर बचाने की चेष्टा की थी। उन्होंने वकील भी नियुक्त किया था। और उन्होंने मेरे पास चुपके से कहा था-पता नहीं इनका अभियोग सत्य है या नहीं पर यह जान कर मुझे कोई ताज्जुब नहीं होगा कि तुमने पौली का खून किया था-मेरी एकमात्र पुत्री, मां भी जिसकी मर चुकी थी-उसी का मुझे बीच-बीच में खून करने की ख्वाहिश होती थी।
उसका स्वभाव अपनी मां जैसा ही था। वह हँसते-हँसते एक इंसान को मृत्यु से अधिक तकलीफ दे सकती थी। यौवनकाल में ही पाइन साहब ने अपनी पत्नी को खोया था। पता नहीं उस पत्नी को क्या हुआ होगा? कभी यह चिन्ता आई ही नहीं-अब बीच-बीच में करता हूं।
और सोचता हूं पाइन साहब की जिन्दगी कितनी शान्ति से, बिना किसी तनाव के बीत रही है। शायद उन्होंने सुख का साथी-पत्नी, बच्चों से घिरा परिवार चाहा था। मैंने एक सुखी संसार की कामना की थी-जैसा संसार हमारे पिता, दादा, ताया कर चुके थे।

आश्चर्य की बात तो यह है कांचनगर की हर चीज मुझे बुरी लगती थी। विरक्तिकर प्रतीत होती थी-पर जब अब इतिहास के पन्ने उलट रहा हूं तो मुझे पता लगा है कि मेरे आदर्श मानस पटल पर उसी संसार की कल्पना थी।
और स्त्री को आदर्श निर्मला-निर्मला-जिसने मेरी जिन्दगी की शुरुआत ही गले में फांसी देकर की जिससे मेरे बाकी जीवन के गले में वह फांस बन कर अटकती रही।
जब आप लोग नहीं रहते मैं अकेला हो जाता हूं तब निर्मला की तस्वीर जिस पर फूलों की माला रहती है-इतने सारे चेहरों को लांघ कर सामने आ जाती है।
विश्वास कीजिए मेरी आखिरी बीबी, छोटी-सी बच्ची सुन्दर लड़की उसे मैंने सच में प्यार किया था। उसे मारने की मेरी जरा भी इच्छा नहीं थी, मैं सिर्फ उन हास-परिहासों को पकड़ने की चेष्टा में था। मेरे वकील मुझे पागल बनाने की कोशिश में हैं। जिससे प्राणदण्ड से रिहाई मिल सकती है।
विश्वास कीजिए मैं पागल नहीं हूं। अगर अपने अनुसार या मन जैसा चाहे वैसा जीवन जीना या ऐसे जीवन की चाह रखना एक भारी पागलपन है तो मैं पागल ही हूं। मेरा और कोई वक्तव्य नहीं है। मैंने जो चाहा वैसा नहीं हुआ। मैं पागल हो गया।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी तो ऐसा कुछ कहते थे-जहां चाही-या जो चाहा वह भूल करके चाहा-जो मिला उसे नहीं चाहा। उनकी इस युक्ति को तो पूरे संसार ने सराहा, उनकी स्तुति की। और मुझे...।

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