नारी विमर्श >> अधूरे सपने अधूरे सपनेआशापूर्णा देवी
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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...
अच्छा समझ नहीं रहे। मैं हँसने लगा-''तब तो मात्रा करके ही पढ़ाना पड़ेगा। सुनो
तीन बरस पहले मेरी पत्नी एक विद्युत दुर्घटना से मर गई थी। सुना भी होगा। जो
भी हो अब मैंने तय किया है एक बार और गृहस्थी करके देख ही लिया जाये। पैसे
वाले बूढ़े के साथ बुद्धिमती लड़कियां जानबूझ कर शादी करना चाहती हैं। उन सब
देशों में यही देख कर आया हूं। विदेशों में लड़का हो या लड़की शादी की कोई उम्र
नहीं होती। जो भी हो-तुम्हारी ममेरी बहन का नाम माधवी है। आशा है कि काफी
बुद्धिमान भी है-बूढ़ा समझ कर ब्याह के लिए ना करके अपना भविष्य खराब नहीं
करेगी। तुम्हीं मध्यस्थता का भार लो। हां, तुम्हारे मामा अगर बूढ़े दामाद की
ख्वाहिश रखें तभी।''
कुछ पल वह लड़का मुंह खोल कर मुझे देखता रह गया फिर अचानक मेरे पैरों पर गिरकर
बोला-''सर क्या बताऊं आप बड़े हैं, आपको तो कुछ नहीं कह सकता अगर मजाक नहीं कर
रहे तो-बताता हूं मामा क्यों पूरा कुनबा आपके पैरों तले पड़ा रहेगा-पर सर शायद
आप मजाक कर रहे हैं?''
मैंने गुस्से का भान किया। गुस्से का अभिनय करते हुए कहा-बेकार में तुम्हारे
मामा की जवान बेटी की शादी की बात पर मजाक क्यों करूंगा-गरीब घर की एक
समझदार, व्यस्का लड़की से ब्याह करके मैं अब शान्तिपूर्वक रहना चाहता हूं।
क्या आप लोग भी सोच रहे हैं एक गरीब घर की काली-कलूटी लड़की को लेकरे मैं क्या
करूंगा?
तब बताता हूं कान में चुपचाप, सुनिये, खूबसूरत से तो कई बार शादी करके देख
लिया अब जरा जबान बदलने की इच्छा हो रही थी।
ज्यादा उम्र की गरीब घर की बड़ी ही साधारण-सी लड़की से ब्याह का सोच कर मुझे
जोश आने लगा। माधवी के साथ ब्याह कर लिया। पौली के साथ कचहरी में रजिस्ट्री
कर शादी की थी। यहां फिर से वही पहले वाला-पुरोहित, नाई-हां, सिर पर सेहरा
करने को किसी ने जोर नहीं दिया। हाथ में सरौंता किसी ने पकड़ा दिया।
शुभदृष्टि के समय नाई ने रीति के अनुसार छन्द बांधा-अच्छे, बुरे लोग हट जाओ,
अगर ना गये तो मेरी तरह-एक मुट्ठी चावल महीने खाना पड़ेगा।
मैं झूठ नहीं बोलूंगा मुझे यह सब समारोह अच्छा लग रहा था, जैसे कांचनगर के
प्रांगड में फिर से आ गया-तब शादी का ऐसा ही रूप देखा था।
मैंने अपने दूसरे जीवन में जितनी भी शादियां देखी थीं-वे सब बिल्कुल अलग
थीं-अनुष्ठान का अर्थ था उपहार ग्रहण। रोशनी से जगमगाता भवन, या सजा
शामियाना, उसमें लम्बे-लम्बे टेबिल, कांटा-छुरी-चम्मच की आवाज, वर्दी पहने
वैरे, तरुणियां मेनका, रंभा, उर्वशी जैसी सजी-धजी होतीं। अगर उनमें से कुछ
प्रौढ़ भी हों तो साज पोशाक से युवती नजर आती थीं। और फूल के गुलदस्तों के भार
से बोझिल दूल्हा-दुल्हिन। जो एक-एक बार उठ कर नम्रता की मुद्रा में दोनों हाथ
बढ़ाकर उपहार ग्रहण में लगे रहते।
इसी प्रकार की शादियां देखने का मैं आदी हो चुका था। भूल ही गया था और भी एक
तरह का ब्याह-अनुष्ठान आज तक चालू है। अभी भी बनारसी साड़ी पहने बहू-बेटियां
माथे पर सूप, टोकरी, घड़ा लेकर दूल्हा-दुल्हिन को घेर लेते हैं-अभी भी शादी की
समाप्ति पर छोटे-छोटे कुल्हड़ द्वारा बचपने का खेल खेला जाता है।
सप्तपदी भी तो होती है।
माधवी नाम बड़ा मधुर था। चेहरा भी खराब ना था पर विषन्न और क्लान्त था।
शुभदृष्टि के वक्त भी वही क्लिष्टता, विषनन्ता देखकर मुझे जरा हताशा हुई थी।
तस्वीर देख सोचा था शायद गरीबी, मेहनत, चिन्ता और अनजाने भविष्य से भयभीत है
या परेशान है। पर अतनू बोस के साथ अपना भविष्य जोड़ वह खूब विदा हो जायेंगे।
उसके नीरस चेहरे पर रस बरसेगा, बुझी आंखों में दिखाई देगी उज्ज्वलता। सुखी
गृह में ही तो रूप का वास होता है।
दुखी लड़की सुखी गृह में जायेगी, उसके सुख से मैं भी सुखी हो पाऊंगा। पर
शुभदृष्टि के समय भी इतनी दुखी? अतनू बोस के साथ भाग्य का सिंहद्वार खुल जाने
पर भी? बूढ़ा दूल्हा शायद अच्छा नहीं लगा। खुद भी तो बच्ची नहीं है। उस लड़के
की दीदी है तो कम-से-कम तीस-बत्तीस की तो होगी ही। उस समय कौड़ी के खेल के समय
उसके हाथ की शिरायें साफ नजर आ रही थीं। उम्र ना होने पर ऐसी नजर नहीं आती।
इसके पहले भी तो यह खेल छोटे-छोटे नरम फूलों जैसे हाथ और भारी-भारी नरम मोम
की तरह मुट्ठी जिनमें शिरायें दिखती ही ना थीं-इसका मतलब उनकी आयु बहुत कम
थी।
अच्छा तो मैं किस उम्र के कगार पर खड़ा हूं। जीवन में कितने ही प्रकार के
इतिहास रचे, लेकिन मैं अपने आप को कहां बूढ़ा मान पाता हूं?
माधवी की शिरायें तो दिखती थीं पर जब सुहाग रात के वक्त जब उसके हाथ की उंगली
में अंगूठी पहनाने लगा तो पसीने से गीला नरम और ठंडा जैसै पत्थर की तरह लगा
तब मुझे अच्छा लगा। एक प्रकार की रूमानी भावना से दिल भर गया।
बेबी की तस्वीर को एक चन्दन की लकड़ी के डिब्बे में रखा था, वह वहीं रही। पौली
बोस की कोई भी तस्वीर इस घर में नहीं थी।
यह घर था माधवी बोस का। चित्र के माफिक इस घर के परिवेश में जहां बनावटीपन का
नामोनिशान भी ना था। वह भी साधारण जीवन जीयेगी और अतनू बोस को भी इसी रस से
सराबोर कर देगी।
सुहागरात को मैंने माधवी से पूछा-''तुम्हें खाना बनाना आता है?'' वह भी
आश्चर्य से देखती रह गई। सोचा होगा क्यों भावी पत्नी की कोई खोज-खबर ही नहीं
ली? या यह भी सोच सकती है इस वक्त खाना बनाने की बात क्यों?-या यह भी सोच
सकती है कितनी अजीब बात है-यह आदमी क्या इतना बूढ़ा हो गया है कि सुहागरात को
और कुछ इसे कहना आया नहीं? देखने से तो इतना बूढ़ा नहीं लगता।
पता नहीं जो भी सोचा हो पर आश्चर्य में तो पड़ ही गई होगी। फिर संक्षेप में
बोली-जानती हूं।
उसे छोटे से उत्तर से ही मुझ में उत्साह का उफान आ गया-बांगला खाना,
जैसे-केले का झोल, नील बैगन की सब्जी आदि बनाना जानती है कि नहीं। इसका मतलब
था मेरी स्मृति पर अभी भी कांचनगर के इन शब्दों की झंकार बज उठी। वह सब कुछ
जानती थी। तब अंग्रेजी खाद्यानों की तालिका दी-''तब वह, बोली नहीं, जानती
क्यों कि वह सब बनाने की जरूरत ही नहीं थी।''
मैं उसकी सरलता पर मोहित हो गया। उसने मिथ्या अहंकार दिखाने के लिए यह नहीं
कहा कि जानती हूं यह जानकर मुझे खुशी हुई।
तब मैं हँस कर बोला-''तुम शायद सोच रही होगी माजरा क्या है, इस आदमी ने क्या
खाना बनाने वाली नौकरानी से शादी की है। है या नहीं?''
माधवी ने भी मुस्कुराकर कहा-''शायद अपने घर के सदस्य के हाथ का बना खाना
पसन्द करते हैं?
उसकी बुद्धि का नमूना देखकर मैं और भी मोहित हो गया।
उसने आप कहा वह भी मुझे अच्छा ही लगा। ठीक है धीरे-धीरे हिम्मत खुलनी चाहिए।
उस घर की लड़की ने अगर शुरू से ही तुम कहना शुरू किया होता तो मुझे अच्छा नहीं
लगता।
तभी तो उसके आप कहने पर आपत्ति नहीं की। हां, पसन्द करता हूं यह सोचना गलत
होगा। कहना चाहिए इच्छा जागी थी। क्योंकि घर के किसी सदस्य के हाथ का बना
खाना खाये ना जाने युग बीत गये-शायद प्रागैतिहासिक युग...।
मेरी नयी जीवनयात्रा की शुरूआत माधवीकुंज से हुई। में जिस प्रकार के जीवन की
कामना करता आया था उसी शैली में अपना जीवन स्तर ले आया। उसमें वर्तमान युग के
साथ तायाजी के युग का सार मिला दिया।
माधवी अपने हाथों से देशी खाना बनाती। वह सुस्वाद खाद्य अपने हाथ से परोस कर
बड़े से चांदी के थाल में लेकर आती। हां, जमीन पर आसन बिछाकर खाने का शौक पूरा
ना कर मेज पर ही खाता था।
अपने वर्तमान जीवन का नाम माधवीकुंज दिया पर उसमें माधवी रजनी का सपना साकार
होता दिखाई ना देता। चन्द की लकड़ी के बक्से में जो चित्र था वह मेरे सपनों को
घेरे रहता और मेरे कामना-वासना को छोटे हाथों के तमाचे से हटाता।
दूसरी ओर माधवी। रात का सपना भी तो माधवी के अन्दर भी ना था। वह तो एक
गृहस्थी पाकर ही धन्य हो गई थी।
मेरा भी यही हाल था।
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