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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7535
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...


मैं यह कह सकता था यह तो कमाल है तुम्हारी सुन्दर देहयष्टि का जिसे? तुम इतना आकर्षक बनाके निकलती हो उससे तो उन अमीर तोंद वाले लोगों का दिल धड़कने लगता होगा या पता नहीं वे सब हार्ट फेल करके मर गये हों?
पौली ने सज श्रृंगार की कला को अपना बांदी बना के रखा था। वह पांच-छह टुकड़े साड़ी, ब्लाउज पहन कर भी शरीर के उन अंगों को निरावरण। रख पाती, जिन्हे देखकर कोई भी फिदा हो सकता था।
मैंने एक बार यह भी कहा था-विज्ञापन संग्रह करने निकल रही हो या विज्ञापन देने जा रही हो?

इस बात से ना तो वह शर्माई ना क्रोधित हुई बल्कि चेहरे पर आत्मविश्वास की मुस्कान लाकर बोली-''ना देने से क्या कुछ पा सकते हैं। कुछ करने के लिए कुछ तो खोना ही पड़ता है। कोई वस्तु बिना मूल्य बिकती है?''
पौली का यही हिसाब था-सीधा-साफ-दाम दो वस्तु लो।
लेकिन किस वस्तु का कितना मूल्य हो सकता है इस बात से वह नावाफिक थी। तभी तो विज्ञापन संग्रह अभियान में उसने अधिक मूल्य दे डाला। पौली जब बाहर निकलने लगी तो बेबी की आया ने प्रशंसा और खुशामद दोनों लहजों से पूछा-दीदी इस साड़ी का क्या दाम है?'' कितना मूल्य?

इसका मतलब उसके ऐख्तियार है या नहीं यही जानने की चेष्टा। क्योंकि वह भी कम नहीं है, अमीर घराने के बच्चे की आया, उसका मान, पैसा सबकुछ है। तनख्वाह तो जमता है। जमा करके क्या वह दीदी की तरह पतली नरम दामी साड़ी नहीं खरीद सकती?
पर उसकी कोशिश में पानी फिर गया। उसकी दीदी जी मुंह टेढ़ा करे हँसके बोलीं-खरीदोगी क्या पहनने से तुम खूब खिलेगा।''
मद्रासी आया की काली और मोटी बेढ़ंगी देहयष्टि पर उस झीनी साड़ी की कल्पना करना ही हास्यकर था।

अगर वह सुन्दर है तो उसका ढिढोरा पीटने की चेष्टा भी क्या कम हास्यप्रद नहीं।
जाने दे। जी जान लड़ाकर पौली ने उन्नीस हजार रुपये इकट्ठे किये। वह तो काफी बड़ा काम था। खर्चे का पन्द्रह हजार रख कर उसने बाकी चार हजार दुखियों को भेजे भी थे।
इस समाज-सेवा के फलस्वरूप कुछ भक्त बन गये जो उसके समाज के नशे थे। पहले पौली इस श्रेणी के लड़के,-लड़कियो के सम्पर्क में नहीं आई थी। पहले इन्हें वह नीची नजर से देखा करती थी। अब वे इस घर में आकर समादर से चाय पीते, बिस्कुट खाते और चानाचूर भी खाते। पौली उन लोगों को लेकर मग्न हो गई थी।
उधर बच्ची की दुख की सीमा नहीं थी, कहां मां, कहां बाप। उसका एकमात्र आसरा होता है उसकी आया। अब वह बड़ी हो रही थी। लोगों का साथ चाहिए था। मुझे दुख होता। मैं अपने हृदय का पितृस्नेह वाला प्यार देना चाहता पर मेरे पास वक्त कहां था?

एक दिन उससे अनुरोध किया। तो पौली मनोहरी हँसी से-मुझे ही वक्त कहां है?
वाह, तुम्हारा इतना क्या काम है? ''क्या मेरा कोई काम नहीं है, तुम क्या सोचते हो मैं पैरों पर पैर रख कर खाती हूं सोती हूं?''
''वह बात नहीं है, तुम उसकी मां हो तुम्हारी जिम्मेदारी है उसे पालने की अगर उसके बड़े होने के समय में उसका साथ ना दे सको...''

पौली ने मुंह को बिगाड़ कर कहा, अब रहने भी दो। दया करके पुराने जमाने की भावप्रवण कथामाला का जाप ना करो। तुम मेरा मत तो जानते हो, मां बनना एक दुर्घटना मात्र है मेरे लिए। कृत्रिम गौरव जो मातृत्व को मिलता है वह सिर्फ ढकोसला है-बनावट है जिससे बच्चे को मां मन लगाकर पाले।
मैंने जीवजगत के प्राणियों का वास्ता दिया। उनके समाज में शिशु पालन के लिए किसी कृत्रिम गौरव का प्रलेप नहीं है, तब भी मातृमहिला उनमें इन्सानों से किसी भी प्रकार कम नहीं पाई जाती।
मैं और भी इस विषय की व्याख्या करना चाहता था पर पौली ने सुना ही नहीं। वह बोली-''वह जैव प्रेरणावश होता है। आहार, निद्रा की तरह, उनके लिए बच्चा बड़ा करना भी प्रकृति प्रदत्त ही है। उसे अपनी युक्ति का हथियार मत बनाओ। क्यों मैं क्या बेबी से प्यार नहीं करती? एक सुन्दर, गोल-सी प्यारी बच्ची जो मेरी अपनी है, उसको जितना प्यार करना चाहिए मैं उतना ही प्यार करती हूं। तुम्हारी तरह स्नेह भार से आक्रान्ति नहीं रह सकती।

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