नारी विमर्श >> अधूरे सपने अधूरे सपनेआशापूर्णा देवी
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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...
यह सब मैं ब्याह के पश्चात् ही जान पाया और जानकर मेरा मोहभंग भी शुरू हो
गया। आप लोगों के मन में यह जिज्ञासा हो सकती है कि पौली तो एकमात्र सन्तान
थी, पाइन साहब के पास दौलत की कमी ना थी, फिर मेरे जैसे ''थर्ड हैन्ड'' के
साथ अपनी कीमती बेटी को बांधने के लिए क्यों व्यस्तता दिखा रहे थे?
यह भी गूढ़ रहस्य था।
वह गूढ़ रहस्य था, बेटी से ज्यादा वे अपने व्यवसाय को महत्व देते थे-उस
व्यवसाय या कारोबार को एक योग्य पात्र के हाथ में देने की योजना में थे-वह
योग पात्र उन्हें मेरे रूप में मिल गया।
लेकिन दोनों को एक ही पात्र को ना सौंपते तो विरोध या टकराव होता। तभी तो
अपनी बेटी को उस पात्र के सामने ला कर खड़ा कर दिया।
इसके अलावा मिस पाइन का कोई 'अतीत' नहीं है-कौन कह सकता है?
शादी के एक बरस के बाद जब पौली को सच में बच्चा हुआ तब नर्सिंग होम के डॉक्टर
ने क्यों कहा था-इतना क्यों घबड़ा रही हैं? पहला बच्चा तो नहीं है। पहली बार
में...।
पौली जोर से हँसी-''क्या पागल की तरह बात करते हैं। मेरी शादी को तो अभी
ग्यारह महीने ही हुए हैं।''
डॉक्टर ने भौंहें सिकोड़ कर एक बार मुझे और एक बार पौली को ऊपर से नीच देखकर
'शौरी' कहा।
पौली ने बाद में कई बार उस डॉक्टर की उस बात को याद करके मजाक किया और उसकी
विलायती डिग्री की खिल्ली उड़ाई। मैं भी उस नवजात शिशु को अपनी प्रतिच्छवि समझ
कर आनन्द से पागल हो गया तभी तो उस बात पर गौर नहीं किया था। फिर भी खट से
उसकी हँसी कानों में बज रही थी, जब वह डॉक्टर का मजाक बना रही थी।
जाने भी दे उस बात को फिर भी पौली के साथ मेरा मतान्तर उस बच्ची को लेकर ही
प्रारम्भ होने लगा।
पौली के लिए मातृत्व एक दुर्घटना मात्र था। वह उसके लिए महिमामय कुछ भी न था।
उसके लिए वह अपने स्वाधीन, स्वच्छन्द जीवन यात्रा में बाधा नहीं डाल सकती थी।
बच्चे को आया के हाथ में सौंप कर निश्चिन्त हो गई। मुझे यह बुरा लगता था।
मेरे मन में अतीत की सारी स्मृतियां हिलोरे लेतीं जो कांचनगर के मातृत्व से
सम्बन्धित होतीं, माओं का शिशु के प्रति पूर्ण समर्पित जीवन जो उनके लिए ही
जीती थीं। क्या मैं अतीन से अतनू बन कर भी कांचनगर के बोस परिवार का संस्कार
अपने रक्त में बहन कर रहा था? शायद कोई इंसान जो सच में पुरुष है वह कभी अपने
पूर्व संस्कार से मुक्त नहीं हो सकता। जब उम्र ढलती जाती है, खून में गर्मी
कम होने लगती है-तब पूर्वजों का रक्त प्रबल जोर से ठाठें मारने लगता है।
जब मैं कहता-बच्चे को तेल लगाकर धूप में रखना चाहिए और बच्चे तो पहले मां से
ही खाद्य ग्रहण करते हैं?
पौली ने अपने शैम्पू वाले छोटे बालों को झटका दिया, लिपिस्टिक लगे होंठों पर
मुस्कान लाकर कहा-''तुम्हें क्या हो गया है? क्या पचास बरस पीछे वाले युग में
चले गये हैं? वच्चों को तेल लगाकर धूप में-ही, बच्चों का स्तनपान-हाय लगता है
किसी आदिवासी क्षेत्र के लोगों का जीवन वृत्तान्त सुन रही हूं।''
मैं स्वयं को आपे में रख लेता-''तुम इन सब बातों को हँसी में नहीं उड़ा
सकतीं-इनमें भी अवश्य वैज्ञानिक अर्थ है।''
है जरूर है, पौली अपने सुनहरे छोटे बालों को लहरा कर (जिन्हें देखकर मैं
मुग्ध हुआ था) हँस कर कहती- ''कमर में धागा, हाथ में लोहा, इन सबका मतलब तुम
क्या निकालोगे?''
मैं शर्मा जाता और चुप हो जाता। मुझे पौली काफी आधुनिक लगती, मेरे से तो
ज्यादा ही। तभी तो अपने को उससे घटिया माना करता।
श्रीमान पाइन भी तो उसी की तरफदारी करते। दादा, नाना तो हमेशा बच्चा देखकर
खुश होते हैं यह तो पुरानी बात है, यह बूढ़ा तो उसकी ओर देखता तक ना था। आया
अगर उसे पास लाती तो-कमरे में ले जाओ-कहता।
हां, एक बात कहना तो भूल ही गया। उस वक्त मैं काफी लम्बे समय तक ससुराल में
रहा फिर मेरा मकान आमीर अली ऐविन्यू में बना। फिर सेन्ट्रल ऐविन्यू का वह
चारमंजिला प्रासाद-जिसकी छत पर फुटबौल खेल सकते हैं।
पौली एक दिन चढ़कर बोली-सिर चकराता है, चक्कर खाकर छत से गिरी नहीं-पौली पौली
तो।
वह तो बाद में।
पौली के साथ ही मैंने लम्बे समय तक विवाहित जीवन जीया। उसमें सब कुछ प्रबन्ध
आ संभालने की अपरिसीमित क्षमता थी। किसी भी मुश्किल परिस्थितियों को या अपने
दोष को वह बातों की चातुरी तथा हँसी के कौशल से सुधार लेती।
क्योंकि उसके अन्दर मानसम्मान का लेश नहीं था। सुविधा या लाभ की खातिर वह कुछ
भी नहीं कर सकती थी।
पौली ने एक बार क्या पीड़ित या अनावृष्टि से पीड़ितों के लिए एक चैरिटी-शो का
सुन्दर कार्यक्रम किया-जो उसकी समाज सेवा का एक अंग था। उसका खर्चा निकालने
के लिए एक 'स्मारिका' भी प्रकाशित की।
उसके लिए विज्ञापन संग्रह करने के लिए पौली अकेले गाड़ी ड्राइव करके निकलती
थी।
शायद अकेले जाने का यही उद्देश्य था। कोई भी उसकी गतिविधि या आवेदन पद्धति का
गवाह ना रहे। पिता के बिजनेश के कारण उसके साथ कई शिल्पपतियों की जान-पहचान
थी-मिस्टर पाइन का नाम सुन कर कइयों ने पहचाना-बारह-तेरह हजार रुपया उसने
विज्ञापन से संग्रह किया था। पौली ने सफलता के गौरव से गौरवान्वित मुखमण्डल
से कहा-देखा मेरा कमाल।
स्वीकार करना पड़ा उसकी दक्षता को। क्योंकि तब भी हमारा सम्बन्ध माधुर्य के
पर्याय पर था करेले का कड़वापन उसमें नहीं आया था।
स्पष्ट शब्दों में साफ बात कह कर उसे गुस्सा नहीं दिलाना चाहता था।
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