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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7535
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...


तभी तो अपने संकल्प को मैंने स्वाभाविक माना। यह तो कोई अजीब या संसार से पृथक् नहीं। मैंने सोचा था मेरे उन अदृश्य संस्कारों से हर पथ पर बाधा मिलती है या जिससे मुझे कोई लाभ नहीं है। उन्हीं को गिरवी रखके मैं 'आनन्द' का क्रय करूंगा।
तभी तो उस आनन्द या सुख का पथ खोजते-खोजते मैं बड़ा बाजार पहुंच गया था। बड़ा बाजार नहीं जाता तो उन बड़ी-बड़ी चीजों को कैसे बेचता, कहां से खरीददार पाता?
वहां-गली या गलियों की खाक छानते-छानते मुझे एक दिन खरीददार मिला, जिसे मैंने अपने सम्पर्दां का संग्रह 'आत्मा' को बेच दिया। तभी उसके बाद अकस्मात् मेरी मर्यादा भी बढ़ गई। मैं अमीर बन गया था।

मैंने अपने दीक्षा-गुरु से अमीर होने के सारे गुर सीख डाले, तभी तो अमीर में क्रमश: बना उसके लिए कई सीढ़ियां भी चढ़नी पड़ीं। पर मैं चढ़ता ही चला गया। मेरे अमीरीपन का पता आपको भी लगेगा।
यह सोचकर आप आश्चर्य कर सकते हैं, मैं कचहरी में क्यों खड़ा हूं? यह तो देखा जाता है कि लक्ष्मी जी की जिस पर कृपा होती है उसे इस प्रांगण में खड़े नहीं होना पड़ता। यह तो मैं भी जानता हूं।
इसका कारण यह है पहले ऐसा अपराध भी नहीं हुआ-
मैं इस अरण्य रूपी संसार के उन बाघ, सिंहों, सूअर, जंगली कुत्तों से जूझता जा रहा था जो इन्सान की चमड़ी ओढ़ कर घूमते हैं।
अब मैंने जान-बूझकर ही सर्कस के खिलाड़ियों का कलेजा लेकर अपने आप को बाघ के सामने समर्पित कर दिया है। नहीं तो मैंने यौवनावस्था की सीमा पार करने के बाद भी यौवन जैसा ही शक्ति व मनोबल अटूट रखा है।
आप अगर यह सोच रहे है उम्र हो गई है तभी मैंने आत्म-समर्पण कर दिया, आप गलती कर रहे हैं।

यह सब तो बहुत बाद की बातें हैं। पहले अतीत में चलते हैं जहां मैंने अमीर बनते-बनते काफी दोस्त भी  बना डाले। मेरे सम, असम उम्र वाले दोस्तों के समूह में एक ही मित्र ने असल मित्र की भूमिका ग्रहण की थी।
उनकी बेटी के साथ मुझे स्वतंत्रता से मिलने-जुलने का अवसर दिया। जिससे उस कन्या को प्राप्त करने का स्वर्ण अवसर मुझे मिल गया था। जिसका नाम था पौली। मेरी तीसरी पत्नी। उसने मेरा नाम अतीन से अतनू कर दिया, जिसने मेरे बालों की शैली से लेकर जीवन-यात्रा की पूरी शैली में आमूल परिवर्तन ला दिया था।
मैं भी उसी रूप में ढला जा रहा था खुशी से, नम्रतापूर्वक और उत्साहपूर्वक। इसका कारण था मैं अपना सब कुछ देकर भी 'सुख' पाना चाहता था।
मैंने अपने जीवन का अतीत पीली से न ही छिपाया बल्कि सब-कुछ खोलकर ही बताया था।

उस वक्त हमारा प्यार परवान चढ़ रहा था। स्टीमर पर चढ़ कर राजगंज गया था। दोनों ही एक-दूसरे से सट कर बैठे थे, अचानक कहा, ''पौली, मैंने अपने जीवन के बारे में तुम्हें सब नहीं बताया।''
फिर मैंने अपना दो, दो इतिहास अनावृत किया। मेरा सुर अवज्ञा एवं कौतुक का मिश्रण लग रहा था। जब मैंने बताया तो प्रतिपादन से प्रश्न एवं मंतव्य तो अवश्य मिला पर मैं सारी बातें बता सका।
खत्म कर यह भी पूछा-सब तो सुना अब बोलो मुझे ग्रहण करोगी या त्यागोगी?
मैं क्या तब तक अपना सब कुछ त्याग ना पाया? मैंने क्या पाप-बोध के भय से अपनी भावी पत्नी को अतीत इतिहास बता डाला?
ना। बिल्कुल नहीं।

मुझे यह डर था बाद में उसे पता चले तो मुझे कहीं का नहीं छोड़ेगी। और वह तो पता पड़ेगा ही। मैंने रिश्तेदारों से मुंह मोड़ लिया था या उन्होंने मुझे व्यंग्य दिया था। पर ''जरूरत'' के वक्त वे दिखाई दे जाया करते।
जैसे मेरे वह सब चचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई, जमाईबाबू जो मेरे अमीर बनने के बाद ऐसे मेरे पीछे घूम रहे थे जैसे मधुमक्खी अपने छत्ते के चारों ओर चक्कर लगाती है, मैं भी उन्हें झपट्टा मार कर हटा देता।
पर वे क्या शान्त होकर बैठे थे? उनसे चाहे मैं ना डरता पर पौली के व्यक्तित्व सम्पन्न पिता के मैं थोड़ा कन्टकित रहता कारण यह था कि क्योंकि मेरे व्यवसाय की कुंजी उन्हीं के पास थी। तभी तो उसकी बेटी को मैं पूरी तौर से अपने वश में करने की हर सम्भव कोशिश में लगा रहता।
इसके अलावा झूठ नहीं बोलूंगा-पौली ही उस समय मेरे लिये-सुख की प्रतिमूर्ति थी, पौली के अन्दर ही मुझे अपने आदर्श जीवन-प्रिया का आभास मिला था। पौली स्मार्ट, बुद्धिमति तो थी साथ में बिना किसी की परवाह किये स्वयं को स्थापित करने की कला जानती और जानती थी अपने आपको आकर्षणीय बनाने की तरकीब।
जो-जो गुण पुरुष को मोहित करते हैं वे सब पौली के अन्दर मुझे दिखे।

इसके अलावा उसमें सर्वाधिक बोध था 'मात्रा' का, कितना अभिमान करने से मधुर परिवेश की सृष्टि होती है, और अगर अभिमान की मात्रा में बढ़ोत्तरी हो तो वही कड़वा बन जाता है यह बोध उसे था। कितने आस 'आंसू' सहानुभूति के और कितने विरक्तिकर होते हैं। कितना अधिक या किस मात्रा में प्रेम-प्रदर्शन उद्दीपना की सृष्टि करता है और कब वह आतंक की वस्तु में परिणत हो जाता है, पौली इन सब विद्याओं में माहिर थी। तभी तो मैं पौली को पाने के लिए पागल हो रहा था।
हालांकि उस वक्त इतना विश्लेषण तो नहीं किया था-तब मैं यही सोचता था पौली को यह सारे गुण प्रकृति ने वरदान-स्वरूप दिये हैं। पौली में मुझे सुख का प्रकाश दिखाई बाद में दिया। जब पौली के साथ रहना शुरू किया तब उसे विश्लेषण करने का मुझे नशा-सा हो गया था।
पर एक बात मैं आज तक ना समझ पाया कि पौली क्या इसी अहंकारवश बदलती जा रही थी कि उसने एक इन्सान के जीवन में दैवी स्वरूप स्थान पा लिया है या उसके दोषों में ही मुझे गुण प्रतीत होते थे।

जब मैं पौली के साथ घूमता था तब वह आनन्द, उल्लास की प्रतिमूर्ति थी। वह किशोरी जैसी प्रतीत होती। जब उसके साथ गंगा के किनारे या शहर से बाहर गाड़ी पार्क करके घास पर बैठता तब वह स्वप्नमय सन्ध्या के आगोश में सिमटी रहस्यमयी भावुक नारी प्रतीत होती, जब उसके घर में जाता तब उसके अन्दर से स्नेहमयी रमणी बाहर आ जाती जो सेवा जतन से मन को हर लेती। जब बहुत लोग होते, उनके सामने वह स्मार्ट गर्ल, और जब निर्जन में हमें घनिष्ठ होने का अवसर मिलता, मेरे भीतर से वासना की अग्नि प्रज्वलित होती तो वह उसमें सामग्री डाल कर उसे और तेज कर देतीं तब वह बेपरवाह पूर्ण यौवना युवती थी।
तभी तो मैं उसे देखकर ही समझ गया इसी की मैं खोज में था अब तक।

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