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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7535
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...


उसे कष्ट से दबाकर वह बोली-मेरा सब कुछ बेकार गया। रूप, यौवन, विवेक, बुद्धि। गरीब की बेटी थी उसी अपराध से मैं दहूजे के पल्ले पड़ी। मैं कलकत्ता नहीं जाऊंगी। ठीक है सब जो है।
''मैं तो बच गया। सबको बता देना।''
''बताया था फिर भी सब जबरदस्ती कर रही थीं। मैंने कहा है मुझे मार डालो फिर भी नहीं जाऊंगी। किसे पता है मुझे अकेले पाकर तुम मुझे जहर ही पिला दो?''
मैंने कठोर स्वर में पूछा-तुम्हारे सन्देह की वजह।
तब वह बोली, ''अब भी कहते हो। पहले भी किसी और को भी कहा होगा।''

प्रभा अचानक निर्मला की तरह ही पलंग से उतर गई। कहा-कारण मुझे नहीं पता पर हमेशा सन्देह होता है।
''क्यों? तुम यही समझती हो कि मैंने ही निर्मला के गले में रस्सी डालकर लटका दिया?''
प्रभा थोड़ी बढ़ी-अपने हाथों से क्या सब करना पड़ता है?''
अचानक मैं डर गया। प्रभा भी क्या धीरे-धीरे दरवाजा खोलकर निकल कर-फिर किसी समय मेरे पास प्रश्नों की झड़ी लगेगी-मझले भैया नई बहू कहां है?''
मैं उस भय से तटस्थ होकर दूसरे स्वर से बोला-मैं क्या अत्याचारी लगता हूं?
कहने के बाद मैं अपने आपको धिक्कार करने लगा। प्रभा चिटकिनी नहीं खोलने जा रही थी। वह तो सुराही से पानी पीने जा रही थी।

प्रभा की साड़ी कमर से नीचे खिसक रही थी, जूड़ा वेणी में परिवर्तित होकर झूलने लगा था, इन सबका अर्थ था प्रभा जितना भी मिजाज दिखाये मगर स्वयं को शिथिल करके यहीं रहना चाहती थी। वह इस पिंजरे से उड़ना नहीं चाहती।
प्रभा अभ्यासवश सुराही से गिलास में पानी ना डालकर पूरी सुराई ही मुंह से लगाकर मुंह को पूरा खोल कर पूरा पानी गटक गई। फिर हॉफ कर खाट के किनारे बैठ कर बोली, ''सारे अत्याचार क्या नजर आते हैं। इसके अलावा तुम्हारे साथ रहने का फायदा क्या है? औरत होकर जनम लेकर भी मां तो बन नहीं पाऊंगी तब देर रहना ही श्रेयस्कर है। उससे लोक-लाज जो कायम रहेगा।
हां। मेरी दूसरी पत्नी ने उस दिन ऐसी अजीब बात कर डाली।
पहले तो मैं समझ ही ना पाया। जब समझा तो पूरे शरीर में विद्युत की लहर फैल गई।
मैं दबे गले से गरजा-मतलब क्या है?

वह भी टस से मस ना हुई-बिना अविचलित हुए बोली, ''अर्थ तो साफ है। इतिहास से ही पता चल जाता है। पहली पत्नी के साथ तीन बरस काटे थे वह बांझ ही मरी और मैं भी-
मैं और तेज हो गया-मरणकाल मैं तो प्रभा ने एक भद्दा भाव चेहरे पर लाकर कहा-बच्ची तो ना थी। उस उम्र में तुम्हारी ताई जी की गोद में दो बच्चे आ गये थे। ''बड़ों की बात जाने दो। मैं कठोर बोलकर बोला-फिर दोनों की बात ही कहती हूं। मेरे भी दो बरस हो गये हैं। मेरी सत्रहवीं वर्षगांठ ब्याह के पहले ही निकल चुकी थी।
उसने इतनी स्पष्टता से गन्दा इशारा किया जिससे मेरा अंग-अंग जल उठा मैं स्वयं ही दरवाजा खोलकर निकल आया।
डरिये नहीं-मैंने ना तो रस्सी की खोज की ना जहर की। अगर ऐसा होता तो कौन इस समय धर्मावतार के दरबार में खड़ा होता? किसी तरफ उंगली उठाकर विरोधी पक्ष का वकील कहता-देखिये धर्मावतार कितना भयानक इन्सान है। एक के बाद एक ब्याह किये और बीवियों को...।
हां, उस बातूनी वकील को मैंने ही बाक्चातुरी दिखाने का मौका दिया था।
उसने भी बड़े ही रसीले ढंग से कहा था-देखिये महामान्य-उसकी प्रथमा गले में फांसी लगाकर मरी, द्वितीया को भी उसने बिना किसी दोष से त्यागा था-और...।'' अगर युक्ति दिखाई जाए तो बिना किसी दोष के पर क्या सारे दोष क्या ऊपर से नजर आते हैं? मेरी पत्नी जीवन-साथी अगर मेरे मानसिक आदर्श के अनुरूप नहीं हो तो वह भी उसे त्याग करने की वजह नहीं बन सकती?

बाद में उसका चरित्र बिगड़ गया था पर उसे मैं दोष में नहीं गिनता, उसकी वजह से अगर मेरे परिवार या वंश पर कलंक लगा तो कोई उस पर आह कर उठे तो वह काफी हास्यजनक है। क्योंकि मैंने ही जिसको त्याग दिया उसके साथ मेरे वंश का कैसा सम्बन्ध है?
लेकिन यह बात क्या मैं जिद्दी एवं कठोर पिता, ताया, चाचा को समझा सका। उस कलंक की वजह से ही मेरे ताया जी को दिल का दौरा पड़ा, पिताजी निम्न रक्तचाप के मरीज हो गये। चाचाओं ने उसी शर्म से मेरे सम्पर्क विच्छेद कर लिया।
सम्बन्ध विच्छेद के बाद उस कलकत्ते वाले मकान में रहना ना सम्भव था। किस हिसाब से रहता मैंने तो सम्बन्ध विच्छेद के बाद हिसाब-रक्षक का पद भी त्याग दिया था।
इस प्रकार एक स्त्री को त्याग करके कई चीजें त्यागनी पड़ गई थीं।
ओर उस भयावह मुहूर्त में और भी कुछ कुछ त्यागने का संकल्प ले लिया-घृणा, लज्जा, भय, नीति दुर्नीती, विवेक।

मैंने संकल्प किया इन सबके विनिमय में सुख क्रय कर लूंगा।
सब कुछ हार कर भी लोग जुआ नहीं खेलते। यथासर्वस्व बिको पर पक्का दालान नहीं बनवाते? माथे के बाल बेचकर एक दुकान नहीं सजाते?
और सब-कुछ बेचकर ही काली लड़की का ब्याह अच्छे घर अच्छे वर के साथ नहीं देते? यही सारी बातें या उदाहरण इसी संसार में ही हर पल घट रही हैं।
सर्वस्व त्याग कर 'कुछ' आ हरण या संग्रह करने का दृष्टान्त मैं दृष्टव्य करा सकता हूं और कुछ भी दिखा सकता हूं।

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