ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
|
248 पाठक हैं |
संभोग से समाधि की ओर...
आनंदित आदमी सेक्स के पास नहीं जाता। दुःखी आदमी सेक्स की तरफ जाता है।
क्योंकि दुःख को भुलाने के लिए इसको एक मौका दिखाई पड़ता है।
लेकिन स्मरण रखें कि जब आप दुःख में जाएंगे, चिंता में जाएंगे उदास, हारे हुह
क्रोध में, लड़े हुए जाएंगे, तब आप कभी भी सेक्स की उस गहरी अनुभूति को उपलब्ध
नहीं कर पाएंगे, जिसकी कि प्राणों में प्यास है। वह समाधि की झलक वहां नहीं
मिलेगी। लेकिन यहीं उल्टा होता है।
मेरी प्रार्थना है, जब आनंद में हों, जब प्रेम में हों, जब प्रफुल्लित हों और
जब प्राण 'प्रेयरफुल' हों। जब ऐसा मालूम पड़े कि आज हृदय शांति से और आनंद
से, कृतज्ञता से भरा हुआ है, तभी क्षण है-तभी क्षण है संभोग के निकट जाने का।
और वैसा व्यक्ति संभोग में समाधि को उपलब्ध होता है। और एक बार भी समाधि की
एक किरण मिल जाए, तो संभोग से सदा के लिए म्उक्त हो जाता है और समाधि में
गतिमान हो जाता है।
स्त्री और पुरुष का मिलन एक बहुत गहरा अर्थ रखता है। स्त्री और पुरुष के मिलन
में पहली बार अहंकार टूटता है और हम किसी से मिलते हैं।
मां के पेट से बच्चा निकलता है और दिन-रात उसके प्राणो में एक ही बात लगी
रहती है, जैसे कि हमने किसी वृक्ष को उखाड़ लिया जमीन से। उस पूरे वृक्ष के
प्राण तड़फते हैं कि जमीन से कैसे वापस जुड़ जाए। क्योंकि जमीन से जुड़ा हुआ
होकर ही उसे प्राण मिलता था, रस मिलता था जीवन मिलता था व्हाइटालिटी मिलती
थी। जमीन से उखड़ गया तो उसकी सारी जड़ें चिल्लाकी कि मुझे जमीन में वापस भेज
दो, उसका सारा प्राण चिल्लाका कि मुझे जमीन में वापस भेज दो। वह उखड़ गया, टूट
गया अपरूटेड हो गया।
आदमी जैसे ही मां के पेट से बाहर निकलता है, अपरूटेड हो जाता है। वह सारे
जीवन और जगत् से एक अर्थ में टूट गया, अलग हो गया। अब उसकी सारी पुकार और
सारे प्राणों की आकांक्षा जगत् और जीवन और अस्तित्व से, एक्लिसटेंस से वापस
जुड़ जाने की है। उसी पुकार का नाम प्रेम की प्यास है।
प्रेम का और अर्थ क्या है? हर आदमी चाह रहा है कि मैं प्रेम पाऊं और प्रेम
करूं! प्रेम का मतलब क्या है?
प्रेम का मतलब है कि मैं टूट गया हूं, आइसोलेट हो गया हूं, अलग हो गया हूं,
मैं वापस जुड़ जाऊं जीवन से। लेकिन इस जुड़ने का गहरे से गहरा अनुभव मनुष्य को
सेक्स के अनुभव में होता है, स्त्री और पुरुष को होता है। वह पहला अनुभव है
जुड़ जाने का। और जो व्यक्ति इस जुड़ जाने के अनुभव को-प्रेम की प्यास, जुड़ने
की आकांक्षा के अर्थ में समझेगा, वह आदमी एक दूसरे अनुभव को भी शीघ्र उपलब्ध
हो सकता है।
योगी भी जुड़ता है, साधु भी जुड़ता है, संत भी जुड़ता है, समाधिस्थ व्यक्ति भी
जुड़ता है, संभोगी व्यक्ति भी जुड़ता है।
संभोग करने में दो व्यक्ति जुड़ते हैं। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से जुड़ता है
और एक हो जाता है।
समाधि में एक व्यक्ति समष्टि से जुड़ता है और एक हो जाता है।
संभोग दो व्यक्तियों के बीच मिलन है।
समाधि एक व्यक्ति और अनंत के बीच मिलन है।
स्वाभावतः दो व्यक्तियों का मिलन क्षणभर को हो सकता है। एक व्यक्ति और अनंत
का मिलन अनंत के लिए हो सकता है। दोनों व्यक्ति सीमित हैं। उनका मिलन असीम
नहीं हो सकता है। यही पीड़ा है, यही कष्ट है, सारे दांपत्य का, सारे प्रेम का
कि जिससे हम जुड़ना चाहते हैं उससे भी सदा के लिए नहीं जुड़ पाते। क्षणभर को
जुड़ते हैं और फिर फासले हो जाते हैं। फासले पीड़ा देते हैं फासले कष्ट देते
हैं, और निरंतर दो प्रेमी इसी पीड़ा में परेशान रहते हैं कि फासला क्यों है?
और हर चीज फिर धीरे-धीरे ऐसी मालूम पड़ने लगती है कि दूसरा फासला बना रहा है।
इसीलिए दूसरे पर क्रोध पैदा होना शुरू हो जाता है।
लेकिन जो जानते है वे यह कहेंगे, दो व्यक्ति अनिवार्यतः दो अलग-अलग व्यक्ति
हैं। वे जबरदस्ती क्षणभर को मिल सकते है लेकिन सदा के लिए नहीं मिल सकते। यही
प्रेमियों की पीड़ा और कष्ट है कि निरंतर एक संघर्ष खड़ा हो जाता है। जिसे
प्रेम करते हैं उसी से संघर्ष खड़ा हो जाता है; उसी से तनाव अशांति और द्वेष
खड़ा हो जाता है! क्योंकि ऐसा प्रतीत होने लगता है, जिससे मैं मिलना चाहता
हूं, शायद वह मिलने को तैयार नहीं। इसलिए मिलना पूरा नहीं हो पाता।
लेकिन इसमें व्यक्तियों का कसूर नहीं है। दो व्यक्ति अनंतकालीन तल पर नहीं
मिल सकते। हम क्षण के लिए मिल सकते हैं। क्योंकि व्यक्ति सीमित है। उनके
मिलने का क्षण भी सीमित होगा। अगर अनंत मिलन चाहिए तो वह परमात्मा से हो सकता
है। वह समस्त अस्तित्व से हो सकता है।
जो लोग संभोग की गहराई में उतरते हैं उन्हें पता चलता है, कि एक क्षण मिलन का
इतना आनंद है, तो अनंतकाल के लिए मिल जाने का कितना आनंद होगा। उसका तो हिसाब
लगाना मुश्किल है। एक क्षण के मिलन की इतनी अद्भुत प्रतीति है तो अनंत से मिल
जाने की कितनी प्रतीति होगी, कैसी प्रतीति होगी?
|