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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


मरे हुए नेता, मरे हुए संत बहुत खतरनाक सिद्ध होते है-अपने कारण नहीं आदमी की आदत के कारण। दुनिया के सभी महापुरुष जो कि मनुष्य को मुक्त कर सकते थे, लेकिन नहीं कर पाए, क्योंकि मनुष्य उनको ही अपने बंधन में रूपांतरित कर लेता है। इसलिए मनुष्य के इतिहास में एक अजीब घटना घटी है कि जो भी संदेश लेकर आता है मुक्ति का हम उसको ही अपना एक नया कारागृह बना लेते हैं! इस भांति जितने भी मुक्ति के संदेश दुनिया में आए उतने ही ढंग की जंजीरें दुनिया में निर्मित होती चली गयीं। आज तक यही हुआ है-क्या आगे भी यही होगा? और आगे भी यही हुआ तो मनुष्य के लिए कोई भी भविष्य दिखायी नहीं पड़ता।

लेकिन ऐसा मुझे नहीं लगता कि जो आज तक हुआ है, वह आगे भी होना जरूरी है। वह आगे होना जरूरी नहीं है। यह संभव हो सकता है कि जो आज तक हुआ है, वह आगे न हो-और न हो, तो मनुष्यता मुक्त हो सकती है। लेकिन मनुष्यता मुक्त हो या न हो, एक-एक मनुष्य को भी अगर मुक्त होना है तो उसे अपने चित्त पर, अपने मन पर, अपनी आत्मा पर पड़ी हुई सारी जंजीरों को तोड़ देने की हिम्मत जुटानी पड़ती है।

जजीरें बहुत मधुर हैं, बहुत सुदर हैं, सोने की हैं, इसलिए और भी कठिनाई हो जाती है। महापुरुषों से मुक्त होना बहुत कठिन मालूम पडता है, सिद्धांतों से मुक्त होना बहुत कठीन मालूम पड़ता है, शास्त्रों से मुक्त होना बहुत कठीन मालूम पड़ता है, और अगर कोई मुक्त होने के लिए कहे, तो वह आदमी दुश्मन मालूम पड़ता है; क्योंकि हम चीजों को मानकर निश्चित हो जाते हैं; खोजने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। और अगर कोई आदमी कहता है-मुक्त हो जाओ, तो फिर खोजने की जरूरत शुरू हो जाती है; फिर मंजिल खो जाती है; फिर रास्ता काम में आ जाता है। और रास्ते पर चलने में तकलीफ मालूम पड़ती है; मंजिल पर पहुंचने के बाद फिर कोई यात्रा नही कोई श्रम नहीं।

मनुष्य ने अपने आलस्य के कारण झूठी मंजिलें तय कर ली हैं। और हम सबने मंजिलें पकड़ रखी हैं।
पहली बात, पहला सूत्र जीवन-क्रांति का मैं आपसे कहना चाहता हूं: और वह यह कि एक स्वतंत्र चित्त चाहिए। एक मुक्त चित्त चाहिए।
एक बंधा हुआ केप्सूल के भीतर बंद, दीवालों के भीतर बंद, पक्षपातों के भीरत बंद, वाद और सिद्धांत और शब्दों के भीतर बंद चित्त कभी भी जीवन में
क्रांति से नहीं गुजर सकता।
और अभागे हैं वे लोग, जिनका जीवन एक क्रांति नहीं बन पाता; क्योंकि वे वंचित ही रह जाते हैं, उस सत्य को जानने से कि जीवन में क्या छिपा है? क्या था राज, क्या था आनंद, क्या था सत्य, क्या था संगीत, क्या था सौंदर्य? उस सबसे ही वे वंचित रह जाते हैं!
...मैंने सुना है, एक सम्राट् ने अपनी सुरक्षा के लिए एक महल बनवाया था। उसने ऐसा इंतजाम किया था कि महल के भीतर कोई घुस न सके। उसने महल के सारे द्वार-दरवाजे बंद करवा दिए थे। सिर्फ एक ही दरवाजा महल में रहने दिया था और दरवाजों पर हजार नंगी तलवारों का पहरा बैठा दिया था। एक छोटा छेद भी नहीं था मकान में। महल के सारे द्वार-दरवाजे बंद करवाकर वह बहुत निश्चित हो गया था। अब किसी खिड़की से, द्वार से, दरवाजे से; किसी डाकू के, किसी हत्यारे के, किसी दुश्मन के आने की कोई संभावना नहीं रह गई थी।
पड़ोस के राजा ने जब यह सब सुना, तो वह उसके महल को देखने आया पड़ोस का राजा भी उस महल को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ...।
आदमी ऐसा पागल है, कि बंद दरवाजों को देखकर बहुत प्रसन्न होता है। क्योंकि बंद दरवाजों को वह समझता है-सुरक्षा, सिक्योरिटी, सुविधा।
...उस राजा ने भी महल देखकर कहा, ''हम भी एक ऐसा महल बनाएंगे। यह महल तो बहुत सुरक्षित है। इस महल में तो निश्चित रहा जा सकता है।''

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga