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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


एक गांव में एक दिन सुबह-सुबह बुद्ध का प्रवेश हुआ। गाँव के द्वार पर ही एक व्यक्ति ने बुद्ध को पूछा, ''आप ईश्वर को मानते हैं? मै नास्तिक हूं। मैं ईश्वर को नहीं मानता हूं। आपकी क्या दृष्टि है?'' बुद्ध ने कहा, ''ईश्वर? ईश्वर है। ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है।''
बुद्ध गांव के भीतर पहुंचे तो एक दूसरे व्यक्ति ने बुद्ध को कहा, ''मैं आस्तिक हूं। मैं ईश्वर को मानता हूं। क्या आप भी ईश्वर को मानते हैं?'' बुद्ध ने कहा, ''ईश्वर? ईश्वर है ही नहीं। मानने का कोई सवाल ही नहीं उठता। ईश्वर एक असत्य हैं!''
पहले आदमी ने पहला उत्तर सुना था, दूसरे आदमी ने दूसरा द्धत्तर सुना। लेकिन बुद्ध के साथ एक भिक्षु था, आनंद। उसने दोनों उत्तर सुने। वह बहुत हैरान हो गया कि सुबह बुद्ध ने कहा 'ईश्वर है' और दोपहर बुद्ध ने कहा, 'ईश्वर नही है!' आनंद बहुत चिंतित हो गया किं बुद्ध का प्रयोजन क्या है? उसने सोचा, साझ फुरसत होगी, रात सब लोग विदा हो जाएंगे, तब पूछ लेगा। लेकिन सांझ तो मुश्किल और बढ़ गयी। एक तीसरे आदमी ने आकर कहा, ''मुझे कुछ भी पता नहीं है कि ईश्वर है या नही। मैं आपसे पूछता हूं आप क्या मानते है-ईश्वर है, या नहीं?'' बुद्ध उसकी बात सुनकर चुप रह गए और उन्होंने कोई भी उत्तर नहीं दिया!
रात जब सारे लोग विदा हो गए तो आनंद बुद्ध को न लगा कि मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। मुझे बहुत झंझट में डाल दिया आपने। सुबह कहा, ''ईश्वर है; दोपहर कहा, नहीं है; सांझ चुप रह गए। मैं क्या समझूं?''
बुद्ध ने कहा, ''उन तीनों में कोई उत्तर तेरे लिए नहीं दिया गया था। तूने वे उत्तर लिए क्यों? जिनके प्रश्न थे, उनका वे उत्तर दिए गए थे। तुझे तो उत्तर दिया नहीं गया था।''
आनंद ने कहा, ''क्या मैं अपने कान बंद रखता। मैंने तीनों बातें सुन ली हैं। यद्यपि उत्तर मुझे नहीं दिए गए लेकिन देने वाले तो आप एक हैं। और आपने तीन उत्तर दिए।''
बुद्ध ने कहा, ''तू नहीं समझा। मैं उन तीनों की मान्यताएं तोड़ देना चाहता था। सुबह जो आदमी आया था, वह नास्तिक था। जो नास्तिकता में बंध जाता है, उस आदमी की आत्मा भी परतंत्र हो जाती है। मैं चाहता था, वह अपनी जंजीर से मुक्त हो जाए। उसकी जंजीर तोड़ देनी थी। इसलिए उसे मैंने कहा-ईश्वर है। ईश्वर है, मैंने सिर्फ इसलिए कहा कि वह जो यह मानकर बैठा है कि ईश्वर नहीं है-वह अपनी जगह से हिल जाए उसकी जड़ें उखड़ जाए उसकी मान्यता गिर जाए वह फिर से सोचने को मजबूर हो जाए। वह रुक गया है। उसने सोचा है कि यात्रा समाप्त हो गयी है। और जो भी ऐसा समझ लेता है कि यात्रा समाप्त हो गयी है, वह कारागृह में पहुंच जाता है।''

जीवन है अनंत यात्रा। वह यात्रा कभी भी समाप्त नहीं होती। लेकिन हिंदू की यात्रा समाप्त हो जाती है, बौद्ध की यात्रा समाप्त हो जाती है, जैन की यात्रा समाप्त हो जाती है, गांधीवादी की यात्रा समाप्त हो जाती है, मार्क्सवादी की यात्रा समाप्त हो जाती है; जिसको भी वाद मिल जाता है, उसकी यात्रा समाप्त हो जाती है। वह समझने लगता है कि उसने सत्य को पा लिया है, कि वह सत्य को उपलब्ध हो गया है; अब आगे खोज की कोई जरूरत नहीं है।
...बुद्ध ने कहा, मैं उसे अलग कर देना चाहता था उसकी जंजीरों से, ताकि वह फिर से पूछे, वह फिर से खोजे, वह आगे बढ़ जाए।
''...दोपहर जो आदमी आया था वह आदमी आस्तिक था। वह यह मानकर बैठ गया था कि ईश्वर है। उसे मुझे कहना पड़ा कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर है ही नहीं। ताकि उसकी जंजीरें भी ढीली हो जादा उसके मत भी टूट जाएं क्योंकि सत्य को वे ही लोग उपलब्ध होते हैं जिनका कोई भी मत नहीं होता।
''और सांझ जो आदमी आया था उसका कोई मत नहीं था। उसने कहा, मुझे कुछ भी पता नहीं कि ईश्वर है या नहीं। इसलिए मैं भी चुप रह गया। मैंने उससे कहा कि तू चुप रह कर खोज, मत की तलाश मत कर, सिद्धांत की तलाश मत कर। चुप हो। इतना चुप होजा कि सारे मत खो जाएं। तो शायद जो है, उसका तुझे पता चल जाए।'' बुद्ध के साथ आप भी रहे होते तो मुश्किल में पड़ गए होते। अगर एक उत्तर सुना होता तो शायद बहुत मुसीबत न होती। लेकिन अगर तीनों उत्तर सुने होते, तो बहुत मुसीबत हो जाती।
बुद्ध का प्रयोजन क्या है?....बुद्ध चाहते क्या हैं?
...बुद्ध आपको कोई सिद्धांत नहीं देना चाहते हैं; बुद्ध आपके जो सिद्धांत हैं उनको भी छीन लेना चाहते हैं। बुद्ध आपके लिए कोई कारागृह नहीं बनाना चाहते; आपका जो बना कारागृह है, उसको भी गिरा देना चाहते हैं-ताकि वह खुला आकाश जीवन का खुली आख उसे देखने की-उपलब्ध हो जाए।
इससे भी क्या होता है। बुद्ध लाख चिल्लाते रहें कि तोड़ दो सिद्धांत लेकिन बुद्ध के पीछे लोग इकट्ठा हो जाते हैं और उनके सिद्धांत को पकड़ लेते हैं।
दुनिया में जिन थोड़े-से लोगों ने मनुष्य को मुक्त करने की चेष्टा की है-मनुष्य अजीब पागल है-उन्हीं लोगों उसने अपना बंधन बना लिया है! चाहे फिर वह बुद्ध हों, चाहे महावीर हों, चाहे मार्क्स हों और चाहे गांधी हों-कोई भी हो-जो भी मनुष्य को मुक्त करने की चेष्टा करता है, आदमी अजीब पागल है, वह उसी को अपना बंधन बना लेता है! उसी को अपनी जंजीर बना लेता है! और जिंदा आदमी तो कोशिश ही कर सकता है कि किसी के लिए उसकी जंजीर न बने, वह मुर्दा आदमी क्या करता है?

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga