ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
|
248 पाठक हैं |
संभोग से समाधि की ओर...
जिसे बूढ़ा होना हो, उसे भय में दीक्षा लेनी चाहिए। उसे भय सीखना चाहिए उसे
भयभीत होना चाहिए।
यूरोप में ईसाइयों के दो संप्रदाय थे-एक तो अब भी जिंदा है, क्वेकर। क्येक का
मतलब होता है, कंप जाना। जमीन कंप जाती है क्येकर का मतलब होता है, कंप जाना।
क्वेकर संप्रदाय का जन्म ऐसे लोगों से हुआ है, जिन्होंने लोगों को इतना भयभीत
कर दिया-कि उनकी सभा में लोग कंपने लगते हैं गिर जाते है और बेहोश हो जाते
हैं। इसलिए इस संप्रदाय का नाम क्वेकर हो गया।
एक और संप्रदाय था, जिसका नाम था शेकर। वह भी कंपा देता था। जान बकॉले जब
बोलता था तो स्त्रियां बेहोश हो जाती थी आदमी गिर पड़ते थे, लोग कंपने लगते
थे, लोगों के नथुने फूल जाते थे, क्या बोलता था? नरक के चित्र खींचता था। साफ
चित्र। और लोगों के मन में चित्र बिठा देता था। और डर बिठा देता था। वे सारे
लोग हाथ जोड़कर कहते थे कि हमें प्रभु ईसा के धर्म में दीक्षित कर दो। डर गए।
इसलिए जितने दुनिया में धर्म नए पैदा होते हैं, वे घबराते हैं कि दुनिया का
अंत जल्दी होनेवाला है। बहुत शीघ्र दुनिया का अंत आनेवाला है। सब नष्ट हो
जाएगा। जो हमें मान लेंगे, वही बच जाएंगे। घबडाहट में लोग उन्हें मानने लगते
हैं।
अभी भी इस मुल्क में कुछ संप्रदाए ऐसे चलते हैं जो लोगों को घबराते हैं कि
जल्दी सब अंत होने वाला है। सब खतम हो जाएगा। और जो हमारे साथ होंगे, वे बच
जाएंगे, शेष सब नरक में पड़ जाएंगे।
सब धर्म यही कहते हैं कि जो हमारे साथ होंगे, वे बच जाएंगे, बाकी सब नरक में
पड़ जाएंगे। अगर उन सब की बातें सही हैं तो एक भी आदमी के बचने का उपाय नहीं
दिखता है। जीसस को नरक में जाना पड़ेगा, क्योंकि जीसस हिंदू नहीं हैं, जैन
नहीं हैं, बौद्ध नहीं हैं। महावीर को भी नरक में पड़ना पड़ेगा, क्योंकि महावीर
ईसाई नहीं हैं, बौद्ध नहीं हैं, हिंदू नहीं हैं, मुसलमान नहीं हैं। बुद्ध को
भी नरक में पड़ना पड़ेगा क्योंकि वह हिंदू नहीं हैं ईसाई नहीं हैं जैन नहीं।
दुनिया के सब धर्म कहते हैं कि हम सिर्फ बचा लेंगे, बाकी सब डुबा देंगे। उस
घबराहट में ठीक से-भय शोषण का उपाय बन गया है।
भयभीत करो, आदमी शोषित हो जाता है।
भयभीत कर दो आदमी को, फिर वह होश में नहीं रह जाता है। फिर वह कुछ भी स्वीकार
कर लेता है। डर में वह इनकार नहीं करता। भयभीत आदमी कभी संदेह नहीं करता और
जो संदेह नहीं करता है, वह बूढ़ा हो जाता है।
जो आदमी संदेह कर सकता है, वह सदा जवान है।
जो आदमी भयभीत होता है, वह विश्वास कर लेता है, 'बिलीव' कर लेता है, मान लेता
है कि जो है, वह ठीक है। क्योंकि इतनी हिम्मत जुटानी कठिन है कि गलत है। बूढ़ा
आदमी विश्वासी होता है। युवा सिर्फ निरंतर संदेह करता है-खोजता है, पूछता है,
प्रश्न करता है।
यह ध्यान रहे, युवा चित्त से विज्ञान का जन्म होता है और बुढ़े चित्त से
विज्ञान का जन्म नहीं होता है।
जिन देशों में जितना भय और जितना वार्धक्य लादा गया है, उन देशों में विज्ञान
का जन्म नहीं हो सका, क्योंकि विचार नहीं संदेह नहीं प्रश्न नहीं जिज्ञासा
नहीं!
क्या हम सब भयभीत नहीं हैं? क्या हम सब भयभीत होने के कारण सारी व्यवस्था को
बांधे हुए पकड़े हुए नहीं खड़े हैं? क्या हम सब डरे हुए नहीं हैं?
अगर हम डरे हुए हैं तो यह संस्कृति और यह समाज सुंदर नहीं है, जिसने हमें डरा
दिया है। संस्कृति और समाज तो तब सुंदर और स्वस्थ होगा जब हमें भय से मुक्त
करे, हमें अभय बनाए। अभय, 'फियरलेसनेस' निर्भय नही। निर्भय और अभय में बड़ा
फर्क है। फर्क हो, यह समझ लेना जरूरी है।
भयभीत आदमी, भीतर भयभीत है और बाहर से अकड़कर डर इनकार करने लगे, तो वह निर्भय
होता है। भय शांत नहीं होता है उसके भीतर। वह बहादुरी दिखाएगा बाहर से, भीतर
भय होगा। जिनके हाथ में भी तलवार है, वे कितने भी बहादुर हों, वे भयभीत जरूर
रहे होंगे, क्योंकि बिना भय के हाथ में तलवार का कोई अर्थ नहीं है। जिनके भी
हाथ में तलवार है, चाहे उनकी मूर्तियां चौरस्ते पर खड़ी कर दी गई हों, और चाहे
घरों में चित्र लगाए गए हों, वे घोड़ों पर बैठे हुए-तलवारें हाथ में लिए हुए
लोग भयभीत लोग हैं। भीतर भय है। तलवार उनकी सुरक्षा है-भय की।
|