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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


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यवक कौन

युवकों के लिए कुछ भी बोलने के पहले यह ठीक से समझ लेना जरूरी है कि युवक का अर्थ क्या है?
युवक का कोई भी संबंध शरीर की अवस्था से नहीं है। उम्र से युवा होने का कोई भी संबंध नहीं है। बूढ़े भी युवा हो सकते हो', और युवा भी बूढ़े हो सकते हैं। लेकिन ऐसा कभी-कभी ही होता है कि बूढ़े युवा हों, ऐसा अकसर होता है कि युवा बूढ़े होते हैं। और इस देश में तो युवक पैदा होते हैं यह भी सदिग्ध बात है!

युवा होने का अर्थ है-चित्त की एक दशा, चित्त की एक जीवंत दशा, लिविंग स्टेट ऑफ माइंड।
बूढ़े होने का अर्थ है-चित्त की मरी हुई दशा। 

'इस देश मे युवक पैदा ही शायद नहीं होते हैं।' जब ऐसा मैं कहता हूं तो उसका अर्थ यही है कि हमारा चित्त जीवंत नहीं है। वह जो जीवन का उत्साह, वह जो जीवन का आनंद और संगीत हमारे हृदय की वीणा पर होना चाहिए वह नहीं है। आंखों में, प्राणों में, रोम-रोम में, वह जो जीवन को जीने की उद्दाम लालसा होनी चाहिए, वह हममें नहीं है। जीवन को जिएं, इससे पहले ही हम जीवन से उदास हो जाते हैं। जीवन को जानें, इससे पहले ही हम जीवन को जानने की जिज्ञासा की हत्या कर देते हैं।

मैंने सुना है, स्वर्ग के एक रेस्तरां में एक दिन सुबह एक छोटी-सी घटना घट गई। उस रेस्तरां में तीन अद्भुत लोग एक टेबिल के आस-पास बैठे हुए थे-गौतम बुद्ध कंफ्युशियस और लाओत्से। वे तीनों स्वर्ग के रेस्तरां में बैठ कर गपशप करते थे। फिर एक अप्सरा जीवन का रस लेकर आयी और उस अप्सरा ने कहा, जीवन का रस पिएंगे?
बुद्ध ने सुनते ही आंख बंद कर ली और कहा, जीवन व्यर्थ है, असार है, कोई सार नहीं।
कंफ्युशियस ने आधी आंख बंद कर ली और आधी खुली रखी। वह गोल्डन मीन को मानता था, हमेशा मध्य-मार्ग। उसने थोड़ी-सी खुली आंखों से देखा और कहा, एक घूंट लेकर चखूंगा। अगर आगे भी पीने योग्य लगा तो विचार करूंगा। उसने थोड़ा-सा जीवन-रस लेकर चखा और कहा, न पीने योग्य है, न छोड़ने योग्य; कोई सार भी नहीं कोई असार भी नहीं। उसने मध्य की बात कही।
लाओत्से ने पूरी की पूरी सुराही हाथ में ले ली और जीवन-रस को कुछ कहे बिना पूरा पी गया। और तब नाचने लगा और कहने लगा, आश्चर्य कि, गौतम तुमने बिना पिए ही इंकार कर दिया और आश्चर्य कि कंफ्युशियस तुमने थोड़ा-सा चखा। लेकिन कुछ चीजें ऐसी होती हैं कि पूरी ही जानी जाएं तो ही जानी जा सकती हैं। थोड़ा चखने से उनका कोई भी पता नहीं चलता।
अगर किसी कविता का एक छोटा-सा टुकड़ा किसी को दिया जाए-दो पंक्तियों का, तो उससे पूरी कविता के संबंध मे कुछ भी पता नहीं चलता। एक उपन्यास का पन्ना फाड़कर किसी को दे दिया जाए तो उससे पूरे उपन्यास के संबंध में कोई पता नहीं चलता है। कोई वीणा पर संगीत बजाता हो, उसका एक स्वर किसी को सुनने को मिल जाए तो उससे उसको, वीणाकार ने क्या बजाया था, इसका कुछ भी पता नहीं चलता। बड़े चित्र का छोटा-सा टुकड़ा फाड़कर किसी को दे दिया जाए तो उसे बड़े चित्र में क्या है, उस छोटे टुकड़े से कुछ भी पता नहीं चल सकता।
कुछ चीजें हैं जिनके शोड़े स्वाद से कुछ पता नहीं चलता, जिन्हें उनकी होलनेस मे, उनकी समग्रता, टोटेलिटी में ही पीना पड़ता है, तभी पता चलता हें।

लाओत्से कहने लगा, नाच उठा हूं मैं। अद्भुत था जीवन का रस।
और अगर जीवन का रस भी अद्भुत नहीं है तो अद्भुत क्या होगा? जिनके लिए जीवन का रस ही व्यर्थ है, उनके लिए सार्थकता कहां मिलेगी? फिर वे खोजें और खोजें। वे जितना खोजेंगे, उतना ही खोते चले जाएंगे। क्योंकि जीवन ही है एक सारभूत, जीवन ही है एक रस, जीवन ही है एक सत्य। उसमें ही छिपा है सारा सौदर्य, सारा आनंद, सारा संगीत।
लेकिन भारत में युवक उस जीवन के उद्दाम वेग से आपूरित नहीं मालूम पड़ते और न ऐसा लगता है कि उनके जीवन में, उनके प्राणों में उन शिखरों को छूने की कोई आकांक्षा है, जो जीवन के शिखर हैं। न ऐसा लगता है कि उन अज्ञात शिखरो को खोजने के लिए प्राणो मैं कोई प्रबल पीड़ा है-उन शिखरों को जो जीवन के शिखर हैं, न जीवन के अंधेरे को, न जीवन के प्रकाश को, न जीवन की गहराई को, न जीवन की ऊंचाई को, न जीवन की हार को, न जीवन की जीत को, कुछ भी जानने का जो उद्दाम वेग, जो गति, जो ऊर्जा होनी चाहिए वह युवक के पास नहीं है। इसलिए युवक भारत में है-ऐसा कहना केवल औपचारिकता है, फार्मिलिटी है।

भारत में युवक नहीं हैं, भारत हजारों साल से बूढ़ा देश है। उसमें बूढ़े पैदा होते हैं, बूढ़े ही जीते हैं और बूढ़े ही मरते हैं। न बच्चे पैदा होते हैं, न जवान पैदा होते हैं।

हम इतने बूढ़े हो गए हैं कि हमारी जड़ें ही जीवन के रस को नहीं खींचती और न हमारी शाखाएं जीवन के आकाश में फैलती हैं और न हमारी शाखाओं में जीवन के पक्षी बसेरा करते हैं और न हमारी शाखाओं पर जीवन का सूरज उगता है और न जीवन का चांद चांदनी बरसाता है, सिर्फ धूल जमती जाती है, जड़ें सूखती जाती हैं, पत्ते कुम्हलाते जाते हैं, फूल पैदा नहीं होते, फल आते नहीं हैं। वृक्ष है, न उनमे पत्ते हैं, न फूल हैं। सूखी शाखाएं खड़ी हैं। ऐसा अभागा हो गया है यह देश!

जब युवकों के संबंध मे कुछ बोलना हो तो पहली बात यही ध्यान देनी जरूरी है। यदि युवक कोई शारीरिक अवस्था है, तब तो हमारे पास भी युवक हैं। युवक अगर कोई मानसिक दशा है, स्टेट आफ माइंड है, तो युवक हमारे पास नहीं है।
अगर युवक हमारे पास होते तो देश में इतनी गंदगी, इतनी सड़ांध, इतना सड़ा हुआ समाज जीवित रह सकता था? कभी की उन्होंने आग लगा दी होती।
अगर युवक हमारे पास होते, तो हम एक हजार साल तक गुलाम रहते? कभी भी गुलामी को उन्होंने उखाड़ फेकां होता।
अगर युवक हमारे पास होते तो हम हजारों-हजारों साल तक दरिद्रता और दनिता और दुःख में बिताते? हमने कभी की दरिद्रता मिटा दी होती या खुद मिट गए होते।
लेकिन नहीं, युवक शायद नहीं है। युवक हमारे पास होते तो इतना पाक, इतना पाखंड, इतना अंधविश्वास पलता इस देश में? युवक बरदाश्त करते? एक-एक करोड़ रुपए यज्ञों में जलाने देते, युवक अगर मुल्क के पास होते?

अब मैं सुनता हूं कि और भी करोडो रुपए जलाने का इंतजाम करने के लिए साधु-संन्यासी लालायित है। और युवक ही जाकर चंदा इकट्ठा करेंगे और वालंटियर बनकर उस यज्ञ को करवाने जाएंगे, जहां देश की सपत्ति जलेगी निपट गंवारी में!
अगर युवक मुल्क में होते तो ऐसे लोगो को क्रिमिनल्स कहकर, पकड़कर अदालतों में खड़ा किया होता, जो मुल्क की संपत्ति को इस भांति बर्बाद करते हैं।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga