ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
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संभोग से समाधि की ओर...
मित्र दूसरी बात करने लगा। लेकिन वह भीतर तो ऊपर कुछ और दूसरी बातें कर रहा
है, लेकिन वहां उसका मन नही है। भीतर उसके बस कोट और पगड़ी! रास्ते पर जो भी
आदमी देखता, उसको कोई भी नहीं देखता। मित्र की तरफ सबकी आंखें जाती। वह बड़ी
मुश्किल में पड़ गया। यह तो आज भूल कर ला-अपने हाथों से भूल कर ली।
जिनके घर जाना था, वहां पहुंचा। जाकर परिचय दिया कि मेरे मित्र हैं जमाल,
बचपन के दोस्त हैं बहुत प्यारे आदमी हैं। और फिर अचानक अनजाने मुंह से निकल
गया कि रह गए कपड़े, सो कपडे मेरे हैं। क्योंकि मित्र भी, जिनके घर गए थे, वह
भी उसके कपड़ों को देख रहे थे और भीतर उसके चल रहा था कोट, पगड़ी। मेरी
कोट-पगड़ी। और उन्हीं की वजह से मैं परेशान हो रहा हूं। निकल गया मुंह से कि
रह गए कपड़े, कपड़े मेरे हैं!
मित्र भी हैरान हुआ। घर के लोग भी हैरान हुए कि यह क्या पागलपन की बात है।
ख्याल उसका भी आया, बोल जाने के बाद। तब पछताया कि यह तो भूल हो गई। पछताया
तो और दबाया अपने मन को। बाहर निकलकर क्षमा मांगने लगा कि क्षमा कर दो, बड़ी
गलती हो गई। मित्र ने कहा, मैं तो हैरान हुआ कि तुमसे निकल कैसे गया? उसने
कहा, कुछ नही, सिर्फ जबान थी, चूक हो गई। हालांकि ज़बान की चूक कभी नही होती।
भीतर कुछ चलता होता है, तो कभी-कभी बेमौके जबान से निकल जाता है। चूक कभी नही
होती है। 'माफ कर दो, भूल हो गई। कैसे यह ख्याल आ गया, कुछ समझ में नही आता।'
हालांकि पूरी तरह समझ में आ रहा था कि ख्या? कैसे आया है!
दूसरे मित्र के घर गए। अब वह तय करता रहा रास्ते में कि अब चाहे कुछ भी हो
जाए, यह नहीं कहना है कि कपड़े मेरे हैं पक्का कर लेना है अपने मन को। घर के
द्वार पर उसने जाकर बिल्कुल दृढ़ संकल्प कर लिया कि यह बात नहीं उठानी है कि
कपड़े मेरे हैं। लेकिन उस पागल को पता नहीं कि वह जितना ही दृढ़ संकल्प कर रहा
है इस बात का, वह दृढ़ संकल्प बता रहा है इस बात को कि उतने ही जोर से उसके
भीतर यह भावना घर कर रही है कि ये कपड़े मेरे हैं।
आखिर दृढ़ संकल्प किया क्यों जाता है?
एक आदमी कहता है कि मैं ब्रह्मचर्य का दृढ़ व्रत लेता हूं, उसका मतलब है कि
उसके भीतर कामुकता दृढ़ता से धक्के मार रही है, नहीं तो और कारण क्या है? एक
आदमी कहता हैं कि मैं कसम खाता हूं कि आज से कम खाना खाऊंगा। उसका मतलब है कि
कसम खानी पड़ रही है, ज्यादा खाने का मन है उसका। और तब अनिवार्यरूपेण द्वंद्व
पैदा होता है। जिससे हम लड़ना चाहते हैं, वही हमारी कमजोरी है। और तब द्वंद्व
पैदा हो जाना स्वाभाविक है।
वह लड़ता हुआ दरवाजे के भीतर गया, संभल-संभल कर बोला कि मेरे मित्र है। लेकिन
जब वह बोल रहा है, तब उसको कोई भी नहीं देख रहा है। उसके मित्र को उस घर के
लोग देख रहे हैं। तब फिर उसे ख्याल आया-मेरा कोट, मेरी पगड़ी। उसने कहा कि
दृढ़ता से कसम खाई है, इसकी बात नहीं उठानी है। मेरा क्या है-कपड़ा-लत्ता।
कपड़े लत्ते किसी के होते हैं यह तो सब संसार है, यह तो सब माया है! लेकिन यह
सब समझा रहा है। लेकिन असलियत तो बाहर से भीतर, भीतर से बाहर हो रही है।
समझाया कि मेरे मित्र हैं बचपन के दोस्त हैं बहुत प्यारे आदमी हैं; रह गए
कपड़े, कपड़े उन्ही के हैं मेरे नहीं हैं। पर घर के लोगों को ख्याल आया कि
'कपड़े उन्ही के हैं, मेरे नहीं है-आज तक ऐसा परिचय कभी देखा नहीं गया था।
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