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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


तो वह परमात्मा की कल्पना करेगा मोक्ष की कल्पना करेगा। लेकिन उसका परमात्मा और मोक्ष अनिवार्य रूप से संसार के विरोध में होगा। क्योंकि वह संसार के विरोध में है। संसार का मतलब है: प्रेम के विरोध में है, शरीर के विरोध में है। तो उसका जो परमात्मा है उसकी कल्पना का वह विपरीत हो गया संसार के। एक अर्थ में संसार का दुश्मन होगा।
ऐसा जो आदमी धार्मिक हो जाए तो रुग्ण धर्म पैदा होगा। और ऐसे लोग अक्सर धार्मिक हो जाते हैं। ऐसे लोग शास्त्र भी लिखते हैं ऐसे लोग अपने विचार का प्रचार भी करते हैं। और दुनिया में बहुत दुःखी लोग हैं वे इस आशा में कि इस तरह के विचारों से आनंद मिलेगा वे भी इस तरफ झुकते हैं। और दुनिया में सभी के पास थोड़ा-बहुत अहंकार है। तो जिनके भी अहंकार को थोड़ा बढ़ावा पाने की इच्छा हो, वे भी इस ओर झुक जाते हैं।
अहंकारी आदमी हमेशा आक्रामक होता है। तो वह अपने धर्म को लेकर भी आक्रमण करता है दूसरों पर। उनको कन्वर्ट करता, उनको समझाता-बुझाता बदलता है। और चूंकि, वह प्रेम काम जीवन के सामान्य संबंधों से अपने को दूर रखता है। स्वभावतः ऐसा लगता है कि वह बड़ा त्याग कर रहा है। और जिन चीजों में हमें सुख मिल रहा है, उन सबको छोड़ रहा है, इसलिए हमारे मन में भी आदर पैदा होता है।

आदर तभी पैदा होता है, जब हमसे विपरीत कोई कुछ कर रहा हो, जो हम न कर पा रहे हों। वह कोई कर रहा हो तो आदर पैदा होता है। और वह आक्रामक है, अहंकारी है। वह सब भांति अपने विचार को हमारे ऊपर थोपने की कोशिश करता है। हम उसड़े राजी न भी हो पाएं तो कम-से-कम हममें वह अपराध भाव, गिल्ट तो पैदा कर ही देता है कि तुम पाप कर रहे हो। तुम जो कर रहे हो, वह गलत है और पाप है; इतना भाव तो पैदा कूर ही देता है।
इस भाव के बड़े मजेदार परिणाम होते हैं। इसका बड़ा परिणाम तो यह होता है कि जो आप कर रहे हैं वह छोड़ ही नहीं पाते, क्योंकि वह स्वाभाविक है। लेकिन अब उसे करते वक्त आपको अपराध की प्रतीति होने लगती है। तो प्रेम
जो है, वह पाप हो जाता है। प्रेम भी करते हैं और भीतर कहीं गहरे में यह भी लगता रहता है कि कुछ गलत कर रहे हैं कुछ पाप कर रहे हैं। इसका परिणाम यह होता है कि प्रेम से जो भी सुख मिलता था, वह मिलना बंद हो जाता है। प्रेम जारी रहता है और सुख इस अपराध भाव के कारण मिलना बंद हो जाता है।

जिस चीज में भी अपराध भाव पैदा हो जाए, उसमें सुख नहीं मिल सकता।
सुख के लिए पहली बात जरूरी है कि मन में अहोभाव हो, अपराध भाव न हो।

तो पुरुष का मन है कि स्त्री को प्रेम करे, स्त्री का मन है पुरुष को प्रेम करे, यह स्वाभाविक आकर्षण है; नैसर्गिक, कुछ इसमें बुरा नहीं है। लेकिन अब वे जो अपराध पैदा कर देंगे त्यागी, वह जहर बन जाएगा। तो स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के प्रति आकर्षित भी होंगे और साथ ही विकर्षित भी हों गे। एक दोहरी धारा, द्वद्व और विपरीत स्थिति बन जाएगी, एक भीतर कंट्राडिक्शन खडा हो जाएगा। यह सारी मनुष्य-जाति में उन्होंने पैदा कर दी। इसके उनको फायदे हैं। क्योंकि जब आपको प्रेम से कोई सुख नहीं मिलता तो उनकी बात बिल्कुल ठीक लगने लगती है कि न तो इसमें कोई सुख...और सुख नहीं मिलता, इसलिए नहीं कि प्रेम में सुख नहीं है; सुख नहीं मिलता इसलिए कि उन्होंने पाप का भाव पैदा कर दिया। अगर कोई बच्चे को समझा दे कि श्वास लेने में पाप है तो श्वास लेने में दुःख मिलने लगेगा। हम जो भी समझा दें, उसमे दुःख मिलने लगेगा।
दुःख जो है, वह कोई भी गलत काम हम कर रहे हैं उससे मिलने लगेगा। वह काम गलत है या नहीं, यह सवाल नहीं है। जैसे जैन घर का बच्चा रात को खाना खाए तो लगता है कि पाप हो रहा है।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga