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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


वह पौधों को पैदा करना चाहती थी। पौधे धीरे-धीरे पैदा हुए। जीवन ने एक नया रूप लिया। पृथ्वी हरियाली से भर गई। फूल खिले।
लेकिन पौधे भी अपने में तृप्त नही थे। वे सतत जीवन को जन्म देते रहे। उनकी भी कोई चेष्टा चल रही थी। वे पशुओं को, पक्षियों को जन्म देना चाहते थे। पशु, पक्षी पैदा हुए।
हजारों-लाखों बरसों तक पशु, पक्षियों से भरा था यह जगत, लेकिन मनुष्य का कोई पता न था। पशुओं और पक्षियों के प्राणों के भीतर निरंतर मनुष्य भी निवास कर रहा था, पैदा होने की चेष्टा कर रहा था। फिर मनुष्य पैदा हुआ।
अब मनुष्य किसलिए है?
मनुष्य निरंतर नए जीवन को पैदा करने के लिए आतुर है। हम उसे सेक्स कहते हैं हम उसे काम की वासना कहते हैं। लेकिन उस वासना का मूल अर्थ क्या है? मूल अर्थ इतना है कि मनुष्य अपने पर समाप्त नही होना चाहता, आगे भी जीवन को पैदा करना चाहता है। लेकिन क्यों? क्या मनुष्य के प्राणों में, मनुष्य से ऊपर किसी 'सुपरमैन को, किसी महामानव को पैदा करने की कोई चेष्टा चल रही हैं?
निश्चित ही चल रही है। निश्चित ही मनुष्य के प्राण इस चेष्टा में संलग्न हैं कि मनुष्य से श्रेष्ठतर जीवन जन्म पा सके। मनुष्य से श्रेष्ठतर प्राणी आविर्भूत हो सके। नीत्शे से लेकर अरविंद तक, पतंजलि से लेकर बट्रेंड रसल तक, सारे मनुष्य के प्रणों में एक कल्पना, एक सपने की तरह बैठी रही कि मनुष्य से बड़ा प्राणी पैदा कैसे हो सके! लेकिन मनुष्य से बड़ा प्राणी पैदा कैसे होगा?

हमने तो हजारों वर्षों से इस पैदा होने की कामना को ही निंदित कर रखा है। हमने तो सेक्स को सिवाय गाली के आज तक दूसरा कोई सम्मान नहीं दिया। हम तो बात करने में भयभीत होते हैं। हमने तो सेक्स को इस भांति छिपाकर रख दिया है, जैसे वह है ही नहीं जैसे उसका जीवन में कोई स्थान नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मनुष्य के जीवन में और कुछ भी नहीं है। लेकिन उसको छिपाया है, उसको दबाया है।

दबाने और छिपाने से मनुष्य सेक्स से मुक्त नहीं हो गया, बल्कि मनुष्य और भी बुरी तरह से सेक्स से ग्रसित हो गया। दमन उल्टे परिणाम लाया है।
शायद आपमें से किसी ने एक फ्रेंच वैज्ञानिक कुये के एक नियम के संबंध में सुना होगा। वह नियम है 'लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट'। कुये ने एक नियम ईजाद किया है, 'विपरीत परिणाम का नियम'। हम जो करना चाहते हैं हम इस ढंग से कर सकते हैं कि जो हम परिणाम चाहते थे, उससे उल्टा परिणाम हो जाए।

एक आदमी साइकिल चलाना सीखता है। बड़ा रास्ता है, चौड़ा रास्ता है। एक छोटा-सा पत्थर रास्ते के किनारे पड़ा हुआ है। वह साइकिल चलाने वाला घबराता है कि मैं कही उस पत्थर से न टकरा जाऊं। अब इतना चौड़ा रास्ता है कि अगर आंख बंद करके भी वह चलाए, तो पत्थर से टकराना आसान बात नहीं है। इसका सौ में एक ही मौका है कि वह पत्थर से टकराए। इतने चौड़े रास्ते पर कही से भी निकल सकता है, लेकिन वह देखकर घबराता है कि कहीं मैं पत्थर से टकरा न जाऊं। और जैसे ही वह घबराता है, मैं पत्थर से न टकरा जाऊं। सारा रास्ता विलीन हो गया; सिर्फ पत्थर ही दिखाई पड़ने लगता है उसको। अब उसकी साइकिल का चाक पत्थर की तरफ मुड़ने लगता है। वह हाथ पैर से घबराता है। उसकी सारी चेतना उस पत्थर को ही देखने लगती है और एक सम्मोहित 'हिप्नोटाइज्ड' आदमी की तरह वह पत्थर की तरफ खिंचा जाता है और जाकर पत्थर से टकरा जाता है। नया साइकिल सीखने वाला उसीसे टकरा जाता है, जिससे बचना चाहता है! लैंपों से टकरा जाता है, पत्थर से टकरा जाता है। इतना बड़ा रास्ता था कि अगर कोई निशानेबाज ही चलाने की कोशिश करता, तो उस पत्थर से टकरा सकता था। लेकिन यह सिक्सड़ आदमी कैसे उस पत्थर से टकरा गया?

कुये कहता है कि हमारी चेतना का एक नियम है: 'लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट'।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga