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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


लेकिन हमारे कई नीतिशास्त्री पुरुषोत्तमदास टंडन और उनके कुछ साथी इस सुझाव के थे कि खजुराहो के मंदिर पर मिट्टी छापकर दीवाल बंद कर देनी चाहिए क्योंकि उनको देखने से वासना पैदा हो सकती है! मैं हैरान हो गया।
खजुराहो के मंदिर जिन्होंने बनाए थे, उनका ख्याल यह था कि इन प्रतिमाओं को अगर कोई बैठकर घंटे भर देखे तो वासना से शून्य हो जाएगा। वे प्रतिमाएं आब्जेक्ट्स फार मैडिटेशन रही हजारों वर्ष तक। वे प्रतिमाएं ध्यान के लिए आब्जेक्ट का काम करती रही हैं। जो लोग अति कामुक थे, उन्हें खजुराहो के मंदिर के पास भेजकर उन पर ध्यान करवाने के लिए कहा जाता था कि तुम ध्यान करो-इन प्रतिमाओं को देखो और इनमें लीन हो जाओ।

और यह आश्चर्य की बात है, हालांकि हमारे अनुभव में है लेकिन हमें ख्याल नहीं। आपको पता है, रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों और आप रास्ते से चले जा रहे हो, तो आपका मन होता है कि खड़े होकर वह लड़ाई देख लें। लेकिन क्यों? आपने कभी ख्याल किया है, लड़ाई देखने से आपको क्या फायदा है? हजार जरूरी काम छोड़कर आप आधे घंटे तक दो आदमियों की मुक्केबाजी देख सकते हैं खड़े होकर-फायदा क्या है?

शायद आपको पता नहीं फायदा एक है। दो आदमियों को लड़ते देखकर आपके भीतर जो लड़ने की प्रवृत्ति है, वह विसर्जित होती है, उसका निकास होता हैं, वह इवोपरेट हो जाती है।
अगर मैथुन की प्रतिमा को कोई घंटे भर तक शांत बैठकर ध्यानमग्न होकर देखे तो उसके भीतर जो मैथुन करने का पागल भाव है, वह विलीन हो जाता है।

एक मनोवैज्ञानिक के पास एक आदमी को लाया गया था। वह एक दफ्तर में काम करता है। और अपने मालिक से, अपने बॉस से बहुत रुष्ट है। मालिक उससे कुछ भी कहता है तो उसे बहुत अपमान मालूम होता है। और उसके मन में होता है कि निकालूं जूता और उसे मार दूं।
लेकिन मालिक को जूता कैसे मारा जा सकता है? हालांकि ऐसे नौकर कम ही होंगे, जिनके मन में यह ख्याल न आता हो कि निकालूं जूता और मार दूं। ऐसा नौकर खोजना मुश्किल है। अगर आप मालिक हैं तो भी आपको पता होगा और अगर आप नौकर हैं तो भी आपको पता होगा।

नौकर के मन में नौकर होने की भारी पीड़ा है और मन होता है कि इसका बदला ले लूं। लेकिन नौकर अगर बदला ले सकता तो नौकर होता क्यों? तो वह बेचारा मजबूर है और दबाए चला जाता है, दबाए चला जाता है।
फिर तो हालत उसकी ऐसी रुग्ण हो गई कि उसे यह डर पैदा हो गया कि किसी दिन आवेश में मैं जूता मार ही न दूं। वह जूता घर ही छोड़ जाता है। लेकिन दफ्तर में उसे जूते की दिन भर याद आती है और जब भी मालिक दिखाई पड़ता है, वह पैर टटोल कर देखता है कि जूता-लेकिन जूता तो वह घर छोड़ आया है, और खुश होता है कि अच्छा हुआ, मैं छोड़ आया। किसी दिन आवेश के क्षण में निकल आए जूता तो मुश्किल होगी।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga