कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
मात्र उसका मन रखने के लिए मैं दो मालाएं ले लेता हूं।
शाम को वह फिर दिखलाई देता है-विशाल मंदिर के पीछे ऊंचे पत्थर की आड़ में छिपा।
मुझे देखते ही वह सहसा सशंकित हो उठता है। आत्मरक्षा के लिए विवश भाव से इधर-उधर देखने लगता है।
उसके शरीर पर अब तक ताजे घाव हैं, जिन पर कत्थई रंग का रक्त जमकर अब एकदम काला हो गया है। घुटनों को ठोड़ी से टिकाए वह भय-त्रस्त नेत्रों से देख रहा है।
"खाना खाओगे?" मैं पास जाकर पूछता हूं तो वह उसी तरह टुकुर-टुकुर ताकता रहता है। शायद समझ नहीं पाता मेरा आशय।
दाहिने हाथ की पांचों अंगुलियां एक साथ मिलाकर, मुंह की तरफ ले जाता हूं-खाने का जैसा अभिनय करता हुआ, तो उसकी बुझी-बुझी धुंधली आंखों में सहसा आर्द्रता का भाव झलकता है-तनिक चमक-सी।
"चलो... !"
यह सुनते ही उसकी पलकें कुछ और बड़ी हो आती हैं।
मैं बांह का सहारा देकर उठाता हूं तो उसके दुर्बल पांव लड़खड़ाने लगते हैं।
किसी तरह उसे पास ही एक ढाबेनुमा भोजनालय तक ले जाता हूं और दरवाजे के पास लगी बेंच पर बैठा देता हूं। झट से एक आदमी केले की भीगी पत्तले सामने रख जाता है, साथ ही पानी का गिलास भी।
पत्तल अभी परोसी ही थी कि भीतर से दौड़ता हुआ दूसरा व्यक्ति आता है। झपटकर पत्तल छीनता है और उसकी गर्दन पकड़कर बाहर धकेल देता है। फिर गुस्से से देखता हुआ, अपनी भाषा में कुछ बड़बड़ाता है। मेरी समझ में और कुछ नहीं, बस इतना ही आता है कि मेरे लिए वह भद्र शब्दों का प्रयोग नहीं कर रहा है। उसकी अंगारे जैसी रक्तिम आंखें धधकने लगती हैं, चेहरा आरक्त।
ज्यों ही वह बाहर सड़क पर गिरता है, शिकारी कुत्तों की तरह लोग उस पर झपट पड़ते हैं। बच्चों और तमाशबीन लोगों की भीड़ इकट्ठा हो जाती है। लोग उस पर केले के छिलके, नारियल के रद्दी टुकड़े और ढेले फेंकते हैं।
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- कथा से कथा-यात्रा तक
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- इस यात्रा में
- एक बार फिर
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- अक्षांश
- आश्रय
- जो घटित हुआ
- पाषाण-गाथा
- इस बार बर्फ गिरा तो
- जलते हुए डैने
- एक सार्थक सच
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- सागर तट के शहर