कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
कोई आदमी, आदमी का ही मांस खा सकता है, इसकी कल्पना मात्र से मैं सिहर उठता हूं।
"किसी ने अपनी आंखों से देखा भी है या यों ही...” मेरा वाक्य भी अभी पूरा नहीं हो पाता कि एक पशु जैसा आदमी भीड़ को चीरता हुआ सामने आता है, "कल रात लोगों ने अपनी आंखों से देखा था। जब इसका पीछा किया तो यह लंगूर की तरह चट्टानों को फांदता हुआ ओझल हो गया था।”
"बोलता क्यों नहीं?" किसी ने उसके नंगे सिर पर इतनी जोर से चपत लगाई कि वह माथा पकड़कर, वहीं पर सुन्न-सा बैठ जाता है।
काठ की तरह वह चुप है। उसकी सूजी आंखों में दैन्य का ही नहीं, गहरी विवशता का भी भाव झलकने लगता है-घोर कातरता का।
पीछे से कोई उसकी पीठ पर, जमकर ठोकर मारता है तो नारियल की तरह लुढ़ककर छिछली चट्टान से जा टकराता है। उसका माथा बुरी तरह छिल गया है। नाक के भीतर से लहू की दो पतली धाराएं होंठों के नीचे की ओर बहने लगती हैं।
"किसने देखा इसे मांस खाते हुए...?" तनिक आवेश में बोलने से अपने को रोक नहीं पाता, तो सहसा सब सहम जाते हैं। कुछ क्षण का सन्नाटा तोड़ते हुए पीछे खड़ा आदमी, एक किशोर का हाथ पकड़कर सामने लाता है, ''इसके भाई ने देखा था...!"
"वह कोई और भी तो हो सकता है !" मैं कहता हूं।
"और कैसे होगा? क्या हम नहीं जानते कि इसके अलावा और कोई भी नहीं हो सकता ! अपने बूढ़े जिंदा बाप को इसने खुद समुद्र में डुबो दिया था। जवान पत्नी की हत्या कर दी थी। यह आदमी नहीं, जीता-जागता राक्षस है, राक्षस !" दांत पीसता हुआ, यमदूत-सा खड़ा, श्याम वर्ण का आदमी धधकती आंखों से मेरी ओर देखता है।
दो-तीन लोग चट्टान के किनारों पर कुछ टटोलने लगते हैं। आस-पास की चट्टानों पर तलाश जारी है।
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