कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
आठ-दस आदमियों का झुंड ठीक उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है, जहां मैं लेटा हूं।
उन्हें इतने पास देखकर, तनिक अचरज से मैं उठ बैठता हूं।
एक बीमार-से, मरियल आदमी का हाथ पकड़े, वे कुत्ते की तरह, बेरहमी से घसीटकर ला रहे हैं। उसकी दाढ़ी सूखी घास की तरह बिखरी है। गैले-कुचैले नाम मात्र के कपड़े तार-तार फटे हैं। घुटनों से, कुहनियों से, होंठों से रक्त बह रहा है। उसकी बुझी-बुझी आंखों में गहरा कातर भाव है। सूखी देह कांप रही है। एक अजीब-सा आतंक उस पर छाया हुआ है।
"यहां पर... यही पर न !” एक गठे शरीर का बलिष्ठ आदमी अपने फौलादी पंजों से उसकी पतली-सी गर्दन ज़मीन की ओर झुकाता हुआ कहता है।
उसका जर्जर शरीर भय से अब और भी अधिक कंपायमान होने लगता है। काले कोटरे में धंसी निस्तेज आंखें बाहर की ओर निकलने लगती हैं-मुंह से तमाम झाग-सा।
"क्या बात है? क्या...?" मैं विस्मय से उठ जाता हूं।
"क्याऽऽ बात ! कुछ नहींऽ !" मुंह बनाता हुआ एक आदमी कहता है। कमर के नीचे मात्र लुंगी। माथे पर चंदन का गहरा लेप।
मैं प्रश्न सूचक दृष्टि से उसकी बगल में खड़े व्यक्ति की ओर देखता हूं।
यह आदमी नहीं, नर-पिशाच है...!"
"क्यों? क्यों...?"
"कहते हैं, कल यहीं पर बैठकर इसने आदमी का मांस खाया था !"
"आदमी...का...मांस !" मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
"हां-हां, किसी बच्चे की लाश समुद्र में बहती हुई यहां किनारे पर लगी थी। कहते हैं कल रात यहां, इसी पत्थर पर बैठकर यह उसे खा रहा था। यह आदमी नहीं, राक्षस है-निरा राक्षस... !" घृणा से वह ज़मीन पर थूकता है। मैं देखता हूं उसकी बड़ी-बड़ी रक्तिम आंखों की ओर, जो आक्रोश से धधक रही हैं।
चट्टान के आस-पास, इधर-उधर निगाहें घुमाता हूं, पर कहीं कुछ दिखलाई नहीं देता-न रक्त, न मांस और न अस्थियों के ही टुकड़े !
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