कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
"कुछ खाया तुमने?”
"नहीं-।”
''तो ऐसे कैसे जियोगी...?"
"अब बचकर क्या करना है बेटा...ये पापी परान निकाले निकलते भी तो नहीं...अब और क्या देखना शेष रह गया है... !" वह रुआंसी हो जाती है।
उसके स्वर की गहरी निराशा उसे कहीं कुछ परेशान कर डालती है। अम्मा ऐसा कहे, उसके लिए अब असह्य हो जाता है।
“ऐसा न कहो अम्मा ! इतना भरा-पूरा परिवार है। बच्चे हैं। बहू है। सब-कुछ तो है, फिर.. फिर।"
वह कहता है तो चारों ओर सहसा सन्नाटा-सा छा जाता है। अम्मा भी कुछ कह नहीं पाती। वह भी गूंगा-सा देखता रहता है।
तभी पत्नी गर्म चाय का गिलास लाती है, कटोरी से ढककर।
"इजा, चा पियोगी?" वह पूछता है।
"हं...।” इससे अधिक वह कुछ बोल नहीं पाती।
सोई हुई मां को वह बंधी गठरी की तरह उठाता है। दीवार के सहारे कमर टिकाकर बिठाता है-फटे तकिये के सहारे। फिर गर्म चाय को कटोरी में डालकर, मां के होंठों के पास ले जाता है।
चाय बहुत गर्म है, जिससे कटोरी भी गर्म हो गई है। सूखे होंठों पर गर्म चाय के छूते ही अम्मा झटके के साथ थोड़ा-सा पीछे हटती है।
"कित्ती गरम चा उठा लाई, खौलती डेगची से- !” वह झुंझलाकर कहता है तो पत्नी कुछ कसरा-सी आती है।
"इन्हें ऐसी ही गरम-गरम चा चाहिए... ठंडी तो पीती ही नहीं...।' पत्नी अभी कुछ कह ही रही थी कि वह बरस पड़ता है, “अरी भागवान, इजा गरम चा पीती है, यह ठीक है, पर उबलती हुई तो नहीं न ! इत्ती उमर है ! मुंह में छाले उभर आए और
अम्मा को कहीं कुछ हो गया तो हम क्या करेंगे?...कहीं के भी नहीं रहेंगे...”
कुछ और भी कहना चाहता था वह उसी बहाव में, परंतु कहता-कहता अटक जाता है।
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