कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
सुबह-सुबह निधान का फोन आया, “भई, कल रात आपकी भाभी गुजर गईं। ग्यारह बजे बिजली के शव-दाहघर में अंतिम संस्कार है...।”
निधान को क्या पता कि वे किन हालात में जी रहे हैं ! पहले तो असगर्थता की बात सोची, किंतु बाद में जाने क्या सोचकर वे निकल पड़े !
उन्होंने देखा, निधान की पत्नी का शव ज़मीन पर लिटाया हुआ है। चेहरे पर लाल रंग का अबीर-जैसा कुछ चुपड़ रखा है। साड़ी भी वैसी ही मटमैली लाल। पास ही ब्राह्मण मंत्र पढ़ रहा है, शव पर जल के छींटे डालता हुआ।
एकटक वे देखते रहे-चेहरा अबोध बालिका की तरह शांत ! जैसे गहरी नींद में अभी-अभी सोई हो।
निधान जिंदगी भर इसे कितना सताता रहा ! कितना ! पर आजीवन प्रताड़ित इस नारी के चेहरे पर शिकायत का कहीं कोई भाव नहीं !
सोचते-सोचते वे कहीं बहुत भावुक हो आए थे।
उस रात फिर अकस्मात नींद खुली। उन्होंने देखा-निधान की दिवंगत पत्नी वही साड़ी पहने, मेज़ पर घुटने सिकोड़े बैठी है।
"अरे, आप क्यों चली आईं यहां?" वे गुस्से में चिल्लाए, “दाह-संस्कार भी हो गया। फिर यहां क्यों? किसलिए?"
पर उसके चेहरे पर कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं थी, उसी तरह अविचल ! मौन ! गूंगी !
धीरे-धीरे आकृति धुंधलाने लगी थी और थोड़ी ही देर में वहां कुछ भी नहीं था। कमरे में केवल बाहर सड़क की, छन-छनकर आती दूधिया रोशनी का धुंधला-सा उजाला था।
यह क्या हो गया ! समझ में कुछ भी नहीं आ पा रहा था।
सारी रात जागी आंखों में बीती।
छह ही नहीं, नौ महीने भी किसी तरह बीते। अब वे अपने में। कुछ ताक़त-सी अनुभव कर रहे थे। सारे ‘एक्स-रे ठीक थे, परंतु अब एक बहुत बड़ा प्रश्न-चिह्न खड़ा हो गया था। डॉक्टर ने अपनी रिपोर्ट में जो लिखा, वह मृत्यु-दंड के आदेश से कुछ कम नहीं लगा। परंतु धीरे-धीरे उन्होंने वह सब भी अंगीकार कर लिया। उन्हें लगा कि अब तक की लाइलाज बीमारियों की तरह वे अपनी अदम्य इच्छा-शक्ति से इस पर भी अवश्य विजय पा लेंगे।
परंतु इस बीच परिवार में कितना कुछ घटित हो गया, इसका अहसास न था उन्हें। जो कुछ भी बचा-खुचा था, उसे समेटने के लिए महाभारत मचा था। कौन कितना बटोर सकता है, इसकी होड़ लगी थी। वे किसी भी क्षण जा सकते हैं, इस विचार ने सबको उतावला बना दिया था।
उस दिन बच्चों के मामा आए थे, उन्होंने अपनी व्यथा उन्हें बतलानी चाही, परंतु उनकी बातें सुनने से पहले उन्हें सारी स्थिति बदलती-सी लगी। बेटा आवेश में कह रहा था-इन्होंने घर की तरफ कभी ध्यान ही नहीं दिया।
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