कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
तब तुमने उसकी रस्सी स्वयं थाम ली थी। नाव पर चढ़ते समय कुछ हरी घास ज़मीन से नोचकर, अपनी मुट्ठी में दबाए तुम ले आई थीं। बकरी के सामने तुमने घास रखी ही थी कि वह पूंछ हिलाती हुई मिमियाने लगी थी।
घास खत्म होते ही वह फिर उछल-कूद मचाने लगी। पुजारी के बेटे ने उसे गोदी में कसकर भींच लिया था, कहीं झील में न कूद पड़े !
जुकाम के कारण बच्चे की नाक निरंतर बह रही थी, ठंडी हवा कम लगेगी यह सोचकर उसे बीच में बिठला दिया था।
नाव पश्चिम की दिशा में बढ़ रही थी, जहां बीच झील में वह छोटा-सा गोलाकार द्वीप था, हथेली के आकार जितना। उसमें एक नन्हा-सा सफेद मंदिर था देवी का। मंदिर के चारों ओर गोलाई में बित्ते भर का रास्ता-दीवार के साथ-साथ।
चारों ओर जल-ही-जल।
मंदिर के बीच में एक छोटा-सा वृक्ष था जो दीवार को तोड़ रहा था अब।
नाव किनारे पर लगी। पुजारी की निगाहें नाव पर टिकी थीं। पता नहीं कब से खड़ा वह प्रतीक्षा कर रहा था।
नाव की रस्सी खींचकर उसने दीवार के साथ लगे लोहे के जंगले से बांध दी।
पूजा की सामग्री जतन से उतारकर उसने चबूतरे पर रख दी। बकरी के बच्चे को दीवार के सहारे, गलियारे में खड़ा किया और झील के पानी के कुछ छींटे मंत्रोच्चार के साथ-साथ उस पर छिड़कता हुआ, नहलाने की रस्म पूरी करने लगा।
बकरी के माथे पर उसने अक्षत, रोली लगाई। कुछ अक्षत उसके चारों पांवों पर चढ़ाए। गले पर कच्चे लाल धागे का डोरा बांधा। सिर पर कुछ फूल चढ़ाए। हरी मुलायम घास उसके पास पहले से रखी थी, जिसे उठाकर उसने चबूतरे के ऊपर रख दिया था।
अब हाथ में नंगी खुखरी लिए, वह देवी की पाषाण प्रतिमा की प्रदक्षिणा करने लगा। बकरी भी साथ-साथ पीछे चल रही थी। रस्सी पुजारी के हाथ में थी।
प्रदक्षिणा पूरी करने के पश्चात बकरी के माथे पर फिर उसने रोली लगाई। इस बीच मंत्रों का उच्चारण भी वह निरंतर करता रहा।
सहसा घास ऊपर से उठाकर उसने नीचे फर्श पर बकरी के मुंह के सागने रख दी।
धारदार नंगी खुखरी ऊपर तक उठाकर वह उसकी झुकी गर्दन पर वार करने ही वाला था कि तभी एक छींक की आवाज़ गूंजी। पुजारी का ऊपर उठा हाथ ऊपर ही रहा गया !
हताश होकर उसने धीरे-से खुखरी नीचे रख दी।
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