कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
"इन विशाल, वीरान भू-भागों को देखकर डर नहीं लगता? दहशत-सी नहीं होती? इस अंतहीन निर्जन में लोग कैसे रहते होंगे?"
प्रत्युत्तर में तुम चुप, शून्य में देखती रहीं।
तुमने कुछ क्षण बाद सन्नाटा तोड़ते हुए कहा, “यहां यह निर्जन भी मुझे बड़ी आश्वस्ति देता है। कभी-कभी मैं सोचती हूं-मेरा वश चले तो अपना घर, अपने बच्चे, अपना शहर, अपनी नील नदी, अपने पिरामिड सब यहां ले आऊं और शेष जीवन यहां सुकून के साथ बिताऊं...।” तुम जैसे मुझसे नहीं, बल्कि मुझे सुनाकर अपने से कह रही हो !
मैंने हल्के से मुस्कराते हुए कहा, “क्या ये ही सब तुम अपने साथ लिए-लिए नहीं फिर रही हो? तुम नहीं जानतीं यथार्थ से अधिक ऊर्जा कल्पना में होती है। कल्पना से बड़ा कोई यथार्थ नहीं होता।”
डेक पर बर्फीली, ठंडी हवा चल रही थी। तुम्हारा सारा शरीर ठंड से कांप रहा था। दांत किटकिटा रहे थे। मैंने छूकर देखा, तुम्हारा हाथ एकदम ठंडा था-बर्फ की तरह ठंडा !
"नीचे चलो। गर्म-गर्म कॉफी पीते हैं।”
इतने में राया भी कुछ ढूंढती-खोजती वहां आ पहुंची।
रेस्तरां भरा हुआ था। इस जहाज़ में अधिकांश यात्री वृद्ध थे। यूरोप के थे। समय बिताने के लिए, चैन की तलाश में बेचैनी से भटक रहे थे।
ट्राम्सो पहुंचे तो सूर्य का तापहीन पीला प्रकाश और अधिक धूमिल हो आया था। हमें उतारकर वह और अधिक उत्तर की दिशा में मुड़कर बर्फीले पहाड़ों की ओट कहीं ओझल हो गया था।
"यही जहाज़ फिनमार्क से लौटता हुआ हमें हास्ता ले जाएगा।" राया कह रही थी।
बस खड़ी थी बाहर !
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