कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
"अरे, तुम पागल तो नहीं हो गईं! मैंने जाने वालों की सूची में अपना नाम ही नहीं लिखवाया तो फिर कैसे...।”
"घबराओ नहीं। मैंने ऑफिस जाकर स्वयं लिखवा दिया था...। सोच क्या रहे हो? जल्दी करो। यू लेज़ी....।"
"मुझे कभी-कभी लगता है, तुम्हें पागलपन के दौरे से पड़ते हैं। पता नहीं, कब क्या कर बैठो !"
तुमने मेरा सारा सामान बिखेर दिया था।
मेरे मोज़े, जूते सामने पटकती हुई बोलीं, “बस, अब चार मिनट रह गए हैं...।”
मेरा भी बैग घसीटती तुम दरवाजे पर खड़ी थीं।
पता नहीं, मैंने कब जूते पहने। कब दरवाज़ा बंद किया। कब सीढ़ियां लांघीं। कब सड़क पार कर उस चौराहे तक पहुंचे, जहां गाड़ी खड़ी थी। अंतिम सूचना प्रसारित हो चुकी थी। ड्राइवर के साथ गाइड भी था, जिसे पल-पल की दूरी का बखान करना था।
स्वचालित द्वार सहसा खुला और हमने बस के भीतर पांव रखा ही था कि पहिये घूमने लगे। मेरी निगाह घड़ी पर पड़ी तो ठीक नौ बजकर पंद्रह मिनट हुए थे।
"एक मिनट की भी देरी होती तो गाड़ी चल देती...।" तुमने उस सर्दी में, चेहरे पर उभर आए पसीने को पोंछते हुए कहा, तुम्हारे कारण कभी मुझे हार्ट अटैक हो तो आश्चर्य नहीं...।”
तुम गुस्से से कह रही थीं, पर मैं शरारत से मुसकरा रहा था, "चलो, इससे इतना तो प्रमाणित हो ही जाएगा कि तुम्हारे पास हृदय नाम की कोई वस्तु भी है...।”
प्रत्युत्तर में विवश भाव से मुसकराकर तुम चुप हो गई थी...।
काग्रेरा पहुंचने में लगभग साढ़े तीन घंटे लग गए थे। तुमने खिड़की वाली सीट मेरे लिए छोड़ दी थी।
“क्यों?"
तुम बोलीं कुछ नहीं। केवल भरपूर निगाहों से तुमने मेरी ओर देखा भर था।
गाइड माइक पर स्थानों के बारे में बतलाता चला जा रहा था :
"यह ड्रमन शहर है। नार्वे का एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह भी। सोलहवीं सदी में बसा था। कागज़ का यहां बहुत बड़ा कारख़ाना है।"
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