कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
“समय कौन-सा दिया था—दिन का या रात का?"
"दिन का !” मैंने कहा तो प्रत्युत्तर में वह बोला, "पर महाशय, इस समय तो रात के ग्यारह बजने को हैं।”
मैं अचरज से देखता रह गया, “हैं, अभी रात है?”
बाहर दिन की तरह हल्की धूप थी। यद्यपि चहल-पहल अधिक नहीं थी, फिर भी ऊंची आवाज़ में बोलने-बतियाने के स्वर स्पष्ट सुनाई दे रहे थे। सामने ढलान वाले पार्क पर कुछ बेंचों पर लोग आपस में नैकट्य का भाव पूरी गर्मजोशी के साथ प्रदर्शित करने में हिचक नहीं रहे थे। यहां की संस्कृति का यह उदार भाव भले ही हमें अटपटा लगे, पर यहां सब सहज था।
दूर पेड़ों की छांव में कुछ युगल तरुण हरी-हरी मुलायम घास पर चहलकदमी कर रहे थे।
मुझे कमरे में लौटकर सूझ नहीं रहा था कि अब क्या करूं। भारत से कुछ चिट्ठियां आई थीं। सोचा, उनके ही जवाब दे दें। पर क़लम थी कि चलने का नाम ही नहीं ले रही थी।
उस दिन बाजार से लौटते हुए कुछ रंगीन पिक्चर पोस्ट-कार्ड लिए थे, नार्वे के सुंदर दृश्यों वाले। अर्द्ध रात्रि में चमकते सूर्य के। उन सबका चुनाव तुमने किया था। बर्फ पर चलती स्लेज गाड़ियां रेनडियरों तथा कुत्तों द्वारा खींची जाने वाली। सफेद भालू !
आधे से अधिक तुम्हारी पसंद के थे, जिन्हें तुम ले जाना भूल गई थीं। जबसे यहां आया हूं, अंधियारा देखने के लिए तरस गया हूं। जीवन में प्रकाश का ही नहीं, अंधकार का भी अपना महत्त्व हैं-इस सत्य का साक्षात्कार मुझे पहली बार हुआ, यहां आने के पश्चात।
शाम को भोजन के समय तुमने कहा, "अभी मैंने घर फोन किया था। अबीरा बोल रही थी। मैंने कहा, ध्रुव-प्रदेश के निकट होने के कारण, यहां छह महीने का दिन होता है, छह महीने की रात। आज-कल दिन चल रहा है...।”
"तो वहां लोग सोते कैसे हैं, सूरज की रोशनी में? ऐसे में तो तुग बीमार पड़ जाओगी। वह चिंतित स्वर में कह रही थी।
"अरे, मोटे-मोटे पर्दे लगा लेते हैं, खिड़कियों और दरवाजों में। जिस वातावरण में आदमी रहता है, धीरे-धीरे उसका अभ्यस्त हो जाता है न !”
"सो तो है।” मेरे ऐसा कहने पर तुम गंभीर सी हो आई थीं।
तभी मुझे याद हो आई, बहुत पुरानी घटना। इवाता सॉन तब भारत आए ही थे, दिल्ली में रहकर हिंदी सीखने। वह गर्मी का मौसम था। जापान की अपेक्षा भीषण गर्म लू चलती थी। उन्होंने पत्र में अपनी मम्मी को लिखा कि यहां आज-कल गर्म हवा की आंधी चलती है। पेड़ों पर बैठे पक्षी बेहोश होकर नीचे गिर जाते हैं।
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