कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
अनायास तुम्हारी पतली नाजुक उंगलियां, मेरे सिर पर रेंगती हुई, कई नए-नए वृत्त बनाने लगी थीं, उनकी ऊष्मा का स्पंदन....सांसों का अहसास...।
मेरी पलकें अनायास मुंद-सी आई थीं। मुझे लगा कि मैं शनैः-शनैः चेतनाशून्य-सा होता चला जा रहा हूं। तभी टप्प-से सहसा माथे पर गर्म-गर्म ओस की दो जलती बूंदें गिरीं, तो मैं जैसे जागा, “अरे, तुम रो रही हो, बहिरा !"
नार्वे आए इतने दिन हो गए, पर अभी भी यहां के परिवेश को आत्मसात नहीं कर पाया हूं। मुझे यह एक नया लोक लगता है। यहां न दिन की तरह दिन होता है, न रात की तरह रात। एक प्रकार के उजास का-सा अहसास हर क्षण बना रहता है।
दिन में धूप निकलती है, तो धूप-जैसी धूप नहीं लगती। लगता है धूप के रंग का अहसास मात्र है। पीला-पीला तापहीन प्रकाश !
भारत में मौसम का अनुमान यानी दिन या रात का भान बाहर के वातावरण से होता है। यदि अंधियारा होने लगे तो पांव घर की दिशा में स्वतः ही बढ़ने लगते हैं। सुबह होने का अर्थ है, जाग जाना। दैनिक दिनचर्या का समारंभ।
पर यहां का अर्थशास्त्र ही नहीं, अंकगणित भी कुछ दूसरा ही लगता है। यहां अंधकार या प्रकाश से नहीं, मात्र घड़ी की सूई के स्पंदन से समय का सही ज्ञान होता है।
कल का अनुभव जब मैंने तुम्हें सुनाया तो नन्ही बच्ची की तरह खिलखिलाकर हंसने लगी थीं।
"क्या तुमने घड़ी नहीं देखी?"
"देखी थी। बाहर चमकते सूर्य को भी देखा था...।”
"तब...!"
“वास्तव में ग्यारह बजे का समय दिया था मैंने अपने किसी भारतीय मित्र को, मायस्टुआ में।”
मैंने उसे फिर विस्तार से बतलाया-
मैं थका था। कुछ पढ़ रहा था, बिस्तर पर लेटा-लेटा। बाहर कुछ-कुछ सर्दी थी। पता नहीं कब पलकें मुंदीं और मैं गहरी निद्रा में सो गया। तभी टेलीफ़ोन की घंटी की आवाज़ से हड़बड़ाता हुआ जागा। देखा-घड़ी में दस कब के बज चुके हैं। जल्दी-जल्दी तैयार होकर भी वक्त पर मायस्टुआ पहुंचना कठिन है।
फिर भी मैं झटपट तैयार हुआ। कपड़े शरीर पर डाले और स्टेशन की ओर दौड़ता हुआ जाने लगा। मेरे जल्दी-जल्दी चलने से काठ की सीढ़ियां अतिरिक्त शोर पैदा कर रही थीं। इतने में युगोस्लावियन चौकीदार भागता हुआ आया। टूटी-फूटी अंग्रेजी में बोला, “सब खैरियत तो है न !”
“खैरियत तो है। मैंने किसी को समय दिया था। वहां वक्त पर पहुंचना है...।”
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