कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
जाड़ों के बाद फिर जाड़ों का मौसम शुरू हो रहा था। काकी के ग्यांलि गइया बिक गई थी। एक दिन कोई बछिया भी हांककर ले गया था। नाम मात्र के गहने-पत्ते पहले ही गिरवी रखे जा चुके थे। काकी की सूनी कलाइयों में पीतल की दो चूड़ियों के अलावा अब कुछ भी शेष न था। मैके से भाई आया था—बुलाने के लिए-जाड़ों के कुछ दिन वहीं कट जाएंगे, पर उसने मना कर दिया था।
आस-पास के अधिकांश लोग तराई की तरफ कब से निकल चुके थे-कुछ महीने के लिए, मेहनत-मजूरी की तलाश में।
सारी बस्ती उजाड़-उजाड़-सी लगती। इक्का-दुक्का लोग ही। कहीं-कहीं दिखलाई देते थे...।
एक दिन शाम को वह अंगीठी में आग सुलगा रहा था। आग में जंगल से लाई बटोरी चीड़ की लकड़ियां भरक रही थीं, तभी उसने मुड़कर देखा-कोई पीछे खड़ा है। लंबा-चौड़ा। पलटनियांजैसा। तीखी, तिरछी, लंबी पूंछे भेड़िया-जैसा !
कांछा को झटका-सा लगा।
काकी ने संकोच से पिछौड़ी का चाल लंबा खींचते हुए, उसके बैठने के लिए दरी बिछा दी थी।
“यह कौन है काकी?” उसने चुपके-से पूछा तो पहले काकी चुप रही, फिर कुछ सोचती हुई बोली, “पाहुना है, दूर का रिश्तेदार। तेरे काका का भाई... !"
उस रात वह वहीं रुका था।
कुछ सप्ताह बाद वह फिर आया था। दो दिन तक रुका रहा था...। रात के अंधियारे में, सबके सो जाने के बाद, भीतर वाले कमरे से काकी के रोने और उसके मनाने का स्वर देर तक गूंजता रहा था...
महीना भी अभी बीता नहीं था कि वह घर के आंगन में फिर खड़ा दिखलाई दिया था। उसके साथ सामान की एक बड़ी पोटली भी थी इस बार।
उसकी मिची मिची कांइयां आंखें, भौंह पर ढेर सारे बाल, छोटे-छोटे कान ! कांछा को यह व्यक्ति क़तई अच्छा नहीं लगा।
था, न इसका आना ही। जब भी वह इसे देखता, एक तरह की दहशत-सी होती मन में।
काकी इस बार इतनी उदास नहीं लग रही थी।
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