कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
कुछ दिन वहां रहकर जब वे लौटने लगे तो हिचकते-हिचकते काकी से बोला, “इस पाठी को हम अपने साथ घर ले जाएं काकी? वहां पानी के नौले के पास खूब हरी-हरी घास होती है। वहीं चराएंगे...।"
काकी के वृद्ध पिता नारियल की काली चिलम की मुंठ दोनों हाथों में पकड़े दरवाजे के पास बैठे, खांसते हुए धुआं उगल रहे। थे। बोले, "अरे ले जा रे भव्वा... ले जा... हां, ध्यान रखना, कहीं लोमड़ी-सियार न उठाकर ले जाएं...!”
"ना-नां” कहती हुई भी अंत में काकी उसे उठा ही लाई, “कांछा दिन-भर खाली रहता है। इसे ही चराएगा...।”
साल-भर से अधिक अर्सा बीत गया था, परंतु भवान सिंह इस बार पलटन से सालाना छुट्टियों में गांव न आ पाया था। पहले उसकी चिट्ठी आई थी। लिखा था-चैत में आएगा। फिर जेठ में आने को लिखा और अब सावन बीत रहा था...।
एक दिन शाम को खीमानंद के आंगन में, तल्ले घर, मल्ले घर के तमाम लोग बैठे तमाखू पी रहे थे। करम सिंह मारा के बेटे हयात सिंह की पलटन से चिट्ठी आई थी। लिखा था-हमारे भवान’दा का अपने किसी साथी सिपाही से झगड़ा हो गया था। रात को उसे न जाने क्या सूझा? अपने सोए हुए उसी साथी को उसने गोली से उड़ा दिया। अब पलटन की होलात में है। कहते हैं, उसे फांसी होगी या उमर कैद।
हयात सिंह भवान सिंह की ही बटालियन में था।
लोगों का कहना था शायद सिर फिर गया होगा बेचारे का ! कुछ का सोचना था कि विधवा भाभी ने जो घात डाली थी, संभवतः उसी का प्रभाव हो। झक्की तो वह बचपन से ही था, पर ऐसा गैर ज़िम्मेदाराना काम भी करेंगा, कोई सोच नहीं सकता था। पिछली लड़ाई में उसे सरकार की ओर से इनाम भी मिला था...।
काकी ने सुना तो उसकी आंखें खुली-की-खुली रह गईं। अब क्या होगा? कैसे? समझ में न आ पा रहा था।
मैके जाकर उसने चिट्ठी लिखवाई, पर उसका भी कोई उत्तर मिल न पाया था... !
फ़ौज से पैसे आने भी अब बंद हो गए थे, जिससे गुज़ारा चलाना और भी कठिन हो चला था। वक्त-बेवक्त मां कुछ भेजती रहती थी, अन्यथा चूल्हा जलाना भी कठिन हो जाता...
काकी का बुझा-बुझा चेहरा अब उसे वैसा ही लगता, जैसा उसके पिता के घर न लौटने पर मां का लगा था। दिन-रात आंखें झरती रहतीं..।
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