कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
“पहाड़ चलेगा, हमारे साथ?"
उसने उसी तरह फिर सिर हिलाया, "हां"।
“कितना रुपया लेगा महीना का, बोल?"
कोई उत्तर न दे पाया वह।
तनिक सोचते हुए सैनिक ने कहा, “हमारे साथ गांव चल। वहीं रहेगा। खाना-पीना, कपड़ा-लत्ता, बीड़ी-तमाखू सब मिलेगा। तनख़ा ऊपर से।”
अभी तक उसी अबोध मुद्रा में बैठा वह देखता रहा।
“रोटी खाई?"
उसने मात्र सिर हिला दिया, “नहीं।”
"खाएगा?"
"हांऽ।”
सामने खड़ी रेड़ी से कुछ पूरियां और सब्जी ला, पत्तल उसके सामने रख दी।
आलू की सब्जी और गर्म-गर्म पूरियां देखकर उसकी भूख और बढ़ गई। अपने दोनों हाथों से बड़े-बड़े ग्रास तोड़ता हुआ वह खपाखप खाने लगा। जैसे महीनों से अन्न का दाना देखा ही न हो।
खाना खा चुकने के बाद वह मालू के फटे पत्तल पर लगी सब्ज़ी चाटने लगा-चट्-चट् लंबी जीभ निकालकर।
"और लेगा क्या?"
"न्नां...।”
तो जा, सीमेंट के चबूतरे के भीतर वह नलका लगा है, पानी पी आ..."
लौटा तो उसके मुरझाए मुखड़े पर अपरिमित संतोष का भाव था।
"बीड़ी लेगा...?" सैनिक ने एक बीड़ी उसकी ओर फेंकी।
जैसे अपने गांव वह फिर पहुंच गया हो। यहां आकर उसे वैसा ही लगा। वैसे ही ऊंचे-ऊंचे पहाड़-बर्फ से ढके। वैसे ही पत्थर, वैसे ही देवदार, चीड़-बांज, बुरौंज, खरसू के पेड़, फंइयां की पूरी डाल पर बिछी फूलों की चादर। रामबांस, कुइयां, धिंगारू, किनमोड़े, दाड़िम, अखोड़-सब कुछ वैसा ही।
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