कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
जैसा कि मैंने अभी कहा, हमारे और सगीर मियां के दरवाजे अगल-बगल हैं। पास-पास। उस दिन जैसे ही मैंने टैक्सी से सामान उतारा, और सीढ़ियां चढ़ने लगा, मुझे एहसास हुआ, सगीर मियां के दरवाजे से लगे गमले के पीछे सफेद शीशे की धुंधली दीवार से एक महिला जैसी आकृति झांक रही है।
कमरे में अभी सामान रख ही रहे थे कि बाहर से 'कॉल-बेल' बजती है। "अदित भाई, क्या अब्बाजान आ गए?"
“जी हां, भाईजान ! बस पहुंच ही रहे हैं," अदित सामान रखते-रखते उत्तर देता है, “तशरीफ लाइए न भीतर।"
"अभी नहीं, शाम को फुरसत में बैठेंगे भाईजान! उनसे हमारा आदाब कहना न भूलिएगा..."
सगीर मियां शायद कहीं जाने की जल्दी में हैं। खट-खट सीढ़ियां उतर जाते हैं।
शाम को हम चाय पी रहे होते हैं कि दरवाजे पर फिर घंटी बजती है।
"आइए... आइए... बाबूजी, ये सगीर मियां हैं हमारे पड़ोसी..."
सगीर मियां के हाथ में फलों से भरा लिफ़ाफ़ा है, अरे, बेगम भी हैं। साथ !
“तशरीफ रखिए न...!"
वे दोनों झुककर आदाब कहते हैं।
चचाजान, हिंदुस्तान में भी हम आपके पड़ोसी हैं, और यहां भी। वहां आप हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी भाई अपना पड़ोसी का फर्ज निभा रहे हैं, और यहां हम अपना।" वह ठहाका लगाकर हंसते है।
बड़ा मनमौजी स्वभाव है, खुला मन।
“नार्वेजियनों की इस सारी कॉलोनी में सिर्फ दो ही घर हैं, हम काले लोगों के। वह भी देखिए, कैसा इत्तेफाक है कि दोनों अगल-बगल में हैं, पड़ोसी।”
“सगीर भाई रोज़ पूछते रहते थे कि आप कब तशरीफ ला रहे हैं..." अदित सहसा बोल पड़ता है।
"हम सोच रहे थे चचाजान, आप आएंगे तो... हम आपसे कम-से-कम एक सवाल जरूर पूछेगे..."
मैं उनकी ओर देखता हूं, “दो पूछिए जनाब ! हम हाज़िर हैं।”
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