ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
कुंजर को मार्ग में देवीसिंह मिल गया। 'तुम कहाँ जा रहे हो?' देवीसिंह ने पूछा और जो बात वह कहना नहीं चाहता था, वह उसके मुंह से निकल गई, 'तुमने जौहर नहीं किया?' ।
कुंजरसिंह ने भी अपने कपड़े पीले किए थे, परंतु वह सार्वजनिक बलिदान में अपनी तोपों की धुन के कारण शामिल न हो पाया था। देवीसिंह की बात उसके कलेजे में काँटे की तरह चुभ गई।
बोला, 'जौहर ही के लिए आया हूँ। आज जीवन-भर की कसक मिटाऊँगा। तुमने मेरे स्वत्व का अपहरण किया। तुम्हें मारे बिना मुझे कभी चैन न मिलेगा। तुम्हारा सिर काटने से बढ़कर मेरे लिए कुछ भी नहीं!' और देवीसिंह पर वार करने लगा। वार सँभालते हुए देवीसिंह ने कहा, 'स्वर्ग या नरक जो तुम्हारे भाग्य में होगा, वहीं अभी भेजता हूँ।'
लड़ाई के लिए स्थान उपयुक्त न था, इसलिए स्वभावतः दोनों लड़ते-लड़ते नदी की
एक ढालू पठारी की ओर क्रमशः चले गए।
दलीपनगर की सेना ने अपने राजा को इस विपत्ति में ग्रस्त देखा। अलीमर्दान भी
बहुत अधिक सैनिक लेकर विराटा की गढ़ी में नहीं गया था, इसलिए उसकी सेना भी
अपने नायक की रक्षा के लिए उत्साहित हो उठी। दोनों दल नदी की ओर झुके और
परस्पर लड़ते-भिड़ते पानी में कूद पड़े। लोचनसिंह पीछे से दबाता हुआ आ
पहुँचा। जनार्दन भी दौड़ पड़ा। इसी भीड़ में एक ही स्थान पर रामदयाल,
लोचनसिंह और छोटी रानी आ भिड़े।
रानी ने लोचनसिंह पर तलवार उठाई और कहा, 'ले बेईमान, मूर्ख! लोचनपिंह के पैर
को इस वार ने थोड़ा-सा घायल कर दिया। लोचनसिंह बोला, 'दलीपनगर की दुर्दशा के
कारण को अभी मिटाता हूँ।' और आँधी की तरह तलवार घुमाकर लोचनसिंह ने छोटी रानी
की भूलोक-यात्रा समाप्त कर दी।
रामदयाल खिसका। कहता गया, 'दाऊजू, मैं लड़ाई में नहीं हूँ। मैं तो किसी को
ढूँढ़ रहा हूँ।'
'जो जन्म-भर किया है, वही किया कर नीच!' लोचनसिंह ने लात मारकर कहा और वह
तुरंत अपनी सेना के आगे पानी में कूद पड़ा। रामदयाल एक चट्टान पर से भरभराकर
पत्थरों से टकराता हुआ पानी में जा गिरा और फिर कभी नहीं देखा गया।
नदी की वह छोटी धार उतराते हुए सिपाहियों से भर गई। कोई कूदते जा रहे थे, कोई
तैरते और कोई गढ़ी के नीचे पहुँचते जा रहे थे।
उधर खुली और विस्तृत जगह पाकर कुंजरसिंह देवीसिंह पर वार पर वार करने लगा।
दलीपनगर और कालपी के भी कुछ सैनिक लड़ते-लड़ते इसी ओर आ रहे थे। ढालू चट्टान
के धारवर्ती छोर की ओर कुमुद सरकती जा रही थी और पीछे-पीछे अलीमर्दान। वह
शीघ्र गति से और अलीमर्दान हथियारों के बोझ के मारे जरा धीरे-धीरे।
कुंजरसिंह ने देवीसिंह पर वार करते-करते उस ओर देखा। हाथ शिथिल हो गया।
हाँफते-हाँफते बोला, 'प्रलय हुआ चाहती है।'
'अभी, एक क्षण की भी कसर नहीं।' देवीसिंह ने कहा और तलवार का भरपूर हाथ दिया।
कुंजरसिंह का सिर धड़ से कटकर अलग जापड़ा। गले की माला छिन्न हो गई। सूखे हुए
फूल पर रक्त का छींटा पड़ा। सूर्य की किरण में वह चमक उठी मानो अनेक रश्मियों
की ज्योति उसमें समा गई हो।
अलीमर्दान और कुमुद के बीच अभी कई डगों का अंतर था। देवीसिंह उसी ओर लपका।
कुमुद शांत गति से ढाल चट्टान के छोर पर पहुँच गई। अपने विशाल नेत्रों की
पलकों को उसने ऊपर की ओर उठाया। उँगली में पहनी हुई अँगूठी पर किरणें फिसल
पड़ीं। दोनों हाथ जोड़कर उसने धीमे स्वर में गाया
"मलिनिया, फुलवा ल्याओ नंदन वन के।
बीन-बीन फुलवा लगाई बड़ी रास;
उड़ गए फुलवा, रह गई बास।'
उधर तान समाप्त हुई, इधर उस अथाह जल-राशि में पैंजनी का 'छम्म' से शब्द हुआ।
धार ने अपने वक्ष को खोल दिया और तान समेत उस कोमल कंठ को सावधानी से अपने
कोश में रख लिया।
ठीक उसी समय वहाँ अलीमर्दान भी आ गया। घुटना नवाकर उसने कुमुद के वस्त्र को
पकड़ना चाहा, परंतु बेतवा की लहर ने मानो उसे फटकार दिया। मुट्ठी बाँधे खड़ा
रह गया।
इतने में रक्त से रँगी तलवार लिए हुए देवीसिंह आ पहुँचा। अलीमर्दान ने तलवार
समेत अपने दोनों हाथों को अपनी छाती पर कसकर कहा, 'आप-राजा देवीसिंह हैं?'
'हाँ, सँभालो।' देवीसिंह ने उत्तर दिया।
'क्या झलक थी महाराज!' लड़ने का कोई भी लक्षण न दिखाते हुए अलीमर्दान बोला,
'बहुत हो चुकी। अब बंद करिए। आप दलीपनगर पर राज्य करिए। हम लोग लड़ना नहीं
चाहते। भ्रम ने हमारे-आपके बीच में बैर खड़ा कर दिया था।'
दोनों पक्षों के सैनिक मतवाले से दौड़ते चले आ रहे थे। अलीमर्दान ने निवारण
करने के लिए जोर से कहा, 'दूर रहो। चट्टान की उस छोटी-सी खोह पर जो मिट्टी
है, उसके पास मत आना। उसमें पद्मिनी के पैर का और सरकने का चिह्न बना हुआ है।
उससे दूर रहना।'
तलवार नीची करके देवीसिंह ने कहा, 'पद्मिनी का नाम आपके मुँह से अच्छा नहीं
लगता नवाब साहब। आप ही ने उसके प्राण लिए हैं। आप यहाँ से जाइए। यह स्थान
हमारी पूजा की चीज है।'
'अवश्य।' अलीमर्दान क्षीण हँसी हँसकर बोला, 'तभी आपकी तोपों ने उसकी एक-एक
ईंट धूल में मिला दी है।'
सैनिकों की भीड़ बढ़ती चली जा रही थी, परंतु वे लड़ नहीं रहे थे। रण का
उत्साह एक अनिश्चित उत्सुकता में परिवर्तित हो गया था। एक ओर से घायल
लोचनसिंह और दूसरी ओर से लहूलुहान मुसलमान नायक वहाँ आए। नायक ने अपने नवाब
से कहा, 'क्या चली गई? चिड़िया हाथ से उड़ गई। लड़ाई क्यों बंद कर दी गई?'
लोचनसिंह ने लपककर सरदार पर तलवार का वार किया और कहा, 'यह उड़ी चिड़िया।' वह
हत होकर गिर पड़ा।
दोनों ओर के सैनिक ऊँचे-नीचे इधर-उधर भिड़ गए। अलीमर्दान ने तलवार नहीं उठाई।
अपने सैनिकों को रोकते हुए बोला, 'लड़ाई बंद करो। महाराज देवीसिंह के साथ
हमारी संधि हो गई है।' फिर पास खड़े हुए देवीसिंह से कहा, 'रोकिए अपने
सिपाहियों को। नाहक खूनखराबी को बचाइए। देखिए, अपने प्यारे सरदार को अपनी आँख
के सामने मारे जाते हुए भी क्रोध नहीं आ रहा है।'
देवीसिंह ने कड़ककर लोचनसिंह से कहा, 'तुम्हारे जैसा मूर्ख पशु ढूँढ़ने पर
नहीं मिलेगा। शांत हो जाओ, नहीं तो तुम्हारे ऊपर मुझे हथियार उठाना पड़ेगा।'
'उसने हमें बहुत सताया था, इसलिए मार दिया।' लोचनसिंह बोला, 'छोटी रानी को
समाप्त कर ही आए हैं। अब यदि नवाब साहब के मन में कोई साध हो, तो इनके लिए भी
तैयार हूँ।'
'निकल जाओ यहाँ से पशु।' देवीसिंह ने क्रुद्ध होकर कहा, 'नहीं तो किसी से
निकलवाऊँ? जनार्दन? कहाँ है जनार्दन?'
भीड़ के एक कोने से आहत जनार्दन सामने आ गया। परंतु राजा और मंत्री में कोई
बात नहीं होने पाई, बीच में ही लोचनसिंह बोल उठा, ऐसे कृतघ्न राजा के राज्य
में जो रहे, उसे धिक्कार है। यह पड़ी है पत्थरों पर तुम्हारी चामुंडराई।' और
उसने अपने फेंटे को बड़ी अवहेलना से चट्टान पर फेंक दिया। वह फरफराकर धार में
बह गया। लोचनसिंह तीव्र गति से वहाँ से अदृश्य हो गया।
अलीमर्दान और देवीसिंह के बीच कुछ शर्तों के साथ संधि स्थापित हो गई। सब लोग
लौटकर धीरे-धीरे चले। अभी ढालू चट्टान के सिरे पर पहुँच न पाए थे कि कुछ
सिपाही अचेत, आहत गोमती को देवीसिंह के सामने ले आए।
'क्या महारानी?' देवीसिंह ने पूछा, 'पुरस्कार के लिए ले आए हो? मिलेगा, पर
यहाँ से सबको ले जाओ।'
'रानी नहीं है महाराज!' एक सैनिक ने उत्तर दिया, 'उनका रुंड तो उस पार पड़ा
है। यह कोई और है। कहती थी, राजा के पास ले चलो, बदला लेना है। इतना कहकर
अचेत हो गई। इसके पास तमंचा था। वह हमने ले लिया है।'
देवीसिंह ने जरा बारीकी के साथ देखा। एक आह ली और कहा, 'मरणासन्न है।'
सैनिकों ने अचेत गोमती को नीचे रखा। देवीसिंह ने उसके सिर पर हाथ फेरा। एक
क्षण बाद गोमती ने आँखें खोलीं। भूली-भटकी हुई दृष्टि। फिर तुरंत बंद कर लीं।
एक बार मुँह से धीरे से निकला. 'रामदयाल!' और वह अस्त हो गई।
अलीमर्दान अपनी सेना लेकर चला गया। देवीसिंह दाँगी वीरों के शवों के पास
गया। सिर नवाकर उसने प्रणाम किया। उसके सब सैनिकों ने नतमस्तक होकर नमस्कार
किया।
देवीसिंह ने कहा, 'अपनी दान पर अटल थे ये। अपनी बान पर निश्चलता के साथ ये
मरे। इन्हें मरने में जैसा सुख मिला होगा, हमें कदाचित् जीवन में भी न
मिलेगा। बहुत समारोह के साथ इनकी दाह-क्रिया की जानी चाहिए।' देवीसिंह का गला
भर आया।
फिर संयत होकर थोड़ी देर में बोला, 'विराटा कागाँव किसी अन्य को जागीर में
कभी नहीं दिया जाएगा। जब तक दाँगियों में कोई भी बचेगा, उसी के हाथ में यह
गाँव रहेगा।'
फिर जनार्दन शर्मा और अपने सरदारों को वह उस स्थान पर ले गया जहाँ जाकर कुमुद
ने आत्म-बलिदान किया था। वह स्थान मंदिर के सामने से जरा हटकर दक्षिण की ओर
था। ढाल चट्टान पर बारीक मिट्टी का एक बहुत हल्का घर जमा था। उस पर कुमुद के
पद और सरकने के चिह्न अंकित थे। दह की लहरें सजग और चपल थीं।
देवीसिंह को रोमांच हो आया। उस ओर उँगली से संकेत करते हुए जनार्दन से कहा,
'देवी ये अंतिम चिह्न छोड़ गई हैं। लहरें कुछ कह-सीरही हैं। उनके नीचे से
पैंजनी की ध्वनि अब भी आती जान पड़ती है।'
जनार्दन थके हुए स्वर में बोला, 'महाराज,हम लोगों के आने में बहुत विलंब हो
गया।'
'जनार्दन।' राजा ने कहा, 'कुजरसिंह की नादानी ने मेरी सारी योजना पर पानी फेर
दिया।' दह की लहरों पर से आँख को हटाकर एक क्षण बाद बोला, 'इन चिह्नों को इस
चट्टान पर ज्यों-का-त्यों अंकित करवा देना चाहिए। लोग पर्वों पर आकर इस
पुण्य-स्मृति से अपने को पवित्र किया करेंगे।'
'जो आज्ञा।' जनार्दन ने उत्तर दिया। देवीसिंह ने दह की ओर देखा।
अभी-अभी थोड़ी देर पहले किसी की उँगली की अंगूठी ने सूर्य की किरणों से होड़
लगाई थी। अभी-अभी थोड़ी ही देर पहले उस जलराशि पर 'छम्म' से कुछ हुआ। किसी
अलौकिक सौंदर्य का उस शब्द के साथ संबंध था और लहरों पर पवन में वह गीत गूँज
रहा था
'उड़ गए फुलवा, रह गई बास।'
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